Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन आदि पदों में तकार अपने-अपने वर्ग के अन्तिम व्यंजन से युक्त हैं और वह व्यंजन पूर्व में है, पर में नहीं। तथा “रङ्ग" "शान्तापर" आदि में हस्व स्वरयुक्त रेफ है । इन वर्गों की आवृत्ति से यहाँ माधुर्य की व्यंजना होती है।
उनिद्रोकनदरेणुपिशङ्गिताङ्ग, गुजन्ति मजुमधुपाः कमलाकरेषु । एतबकास्ति च रखेर्नवकन्युजीव -
पुष्पच्छदाभमुदयाचलचुम्बिबिम्बम् ॥' यहाँ भी वर्गान्तयोगी स्पर्श "ग" "ज", तथा "म्ब" की आवृत्ति हुई है ।
_ "सरस्वतीहदयारविन्दमकरन्दविन्दुसन्दोहसुन्दराणाम्" यहाँ भी "न्द" (वर्गान्तयोगी द) की आवृत्ति हुई है, जो माधुर्य गुण की व्यंजिका
"विरहोताभ्यत्तन्वी" में द्विरुक्त" "त" का दो बार प्रयोग है ।
"सौन्दर्यपुस्मितम्" में रेफ संयुक्त “य" का तथा “कलारहलाद" में ह-संयुक्त "ल" का अनेक बार प्रयोग हुआ है।
___ माधुर्यगुण शृंगार, करुण तथा शान्तरस में होता है । संभोग शृंगार से अधिक करुण में, करुण से अधिक विप्रलम्भ शृंङ्गार में तथा विप्रलम्भ शृंगार से अधिक शान्तरस में होता है । अतः इन्हीं कोमल रसों के उत्कर्ष के लिए माधुर्यव्यंजक वर्गों की आवृत्ति की जाती है । चित्त को द्रवित या आर्द्र कर देनेवाला आहादमयत्व माधुर्य कहलाता है।" (1) ओजोव्यंजक वर्णविन्यासकाता
दीप्ति अर्थात चित्त के विस्तार को उत्पन्न करने वाला रस-धर्म ओज कहलाता है। सहृदय के हृदय का प्रज्वलित सा हो जाना दीप्ति है, इसे ही चित्त का विस्तार कहते हैं।
१. . वक्रोक्तिजीवित, २/२ २. वही, २/२ ३. "प्रथममरुण" इत्यादि पद्य का अंश | - वक्रोक्तिजीवित, २/६ तथा १/४१ ४. "धम्मिलो" इत्यादि पद्य का अंश । वही, २/१ ५. वही, २/२ ६. "करुणे विप्रलम्भे तच्छान्ते चातिशयान्वितम्" - काव्यप्रकाश, ८/६९ ७. "आह्लादकत्वं माधुर्य शृंगारे द्रुतिकारणम्" । वही, ८/६८