Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ओज गुण वीर, वीभत्स, रौद्र एवं भयानक रस में होता है । वीर रस से अधिक वीभत्स में, वीभत्स से अधिक रौद्र में होता है । इन परुष रसों के धर्मभूत ओजगुण की व्यंजना निम्नलिखित वर्गों के आवृत्ति रहित या आवृत्ति सहित प्रयोग से होती है :(१) वर्ग के प्रथम एवं तृतीय वर्ण के साथ क्रमशः द्वितीय एवं चतुर्थ वर्ण का
योगा' जैसे - पुच्छ, बद्ध आदि में । (२) रेफ के साथ किसी भी वर्ण का पूर्व में, पर में अथवा दोनों ओर योग ।।
जैसे वक्त्र, निर्हाद आदि में। (३) दो तुल्य वर्गों का योग. (द्विरुक्त वर्ण)।
(४) संयुक्त या असंयुक्त ट, ठ, ड, ढ तथा श, ष ।' उदाहरण :
मू मुवृत्तकृताविरलगलगलवक्तसंसक्तधारा - पौतेशामिप्रसादोपनत जबजगजात मिथ्यामहिम्नाम् । कैलासोल्लासनेच्छाव्यतिकरपिशुनोत्सर्पिदर्पोत्पुराणाम्,
दोष्णां वैषा किमेतत्फलमिह नगरीरक्षणे यत्प्रयासः ॥ यहाँ "मू म्" "उत्सर्पिदर्प" में ऊपर तथा "अघ्रि" एवं "द्रक्त" में नीचे रेफ का योग है । "उद्वृत्त" तथा "कृत्त" में तुल्य वर्गों का योग है । "ईश" एवं "पिशुन" में शकार तथा "दोष्णाम्", "एषाम्" में षकार है । इनके द्वारा वीररस के धर्मभूत ओजगुण की व्यंजना होती है।
कुन्तक ने परुष रसों के धर्मभूत ओजगुण के व्यंजक वर्गों के पुनः पुनः प्रयोग का निम्न उदाहरण प्रस्तुत किया है :
उत्ताम्पत्तालवश्च प्रतपति तरणाबांशी तापतन्त्री -
मद्रि द्रोपीकुटीरे कुहरिणि हरिणारातयो यापयन्ति । यहाँ कवि को भयानकरस की सृष्टि करना अभिप्रेत है, जो एक परुषरस है ।
१. "वीभत्सरौद्ररसयोस्तस्याधिक्यं क्रमेण च", काव्यप्रकाश, ८/७० २. वही, ८/७५ ३-४. वही, ८/७५ ५. वही, ८/७५ ६. वक्रोक्तिजीवित २/८, पृष्ठ १७९