Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
१५३ - रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा (घृणा) और विस्मय ये आठ स्थायिभाव कहलाते हैं । इनके अतिरिक्त निर्वेद को भी नौवाँ स्थायिभाव माना गया है । काव्यप्रकाशकार ने लिखा है:
"निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः।" इस प्रकार नौ स्थायीभाव और उनके अनुसार ही शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त नौ रस माने गये हैं ।
ये नौ स्थायिभाव मनुष्य के हृदय में स्थायी रूप से सदा विद्यामान रहते हैं इसलिए "स्थायिभाव" कहलाते हैं । सामान्यरूप से अव्यक्तावस्था में रहते हैं किन्तु जब जिस स्थायिभाव के अनुकूल विभावादि सामग्री प्राप्त हो जाती है, तब वह व्यक्त हो जाता है और रस्यमान, आस्वाधमान होकर रसरूपता को प्राप्त हो जाता है।
... इस प्रकार विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव तथा स्थायिभाव ये चार रस सामग्री हैं । काव्य-नाट्य में प्रथम तीन का संयोग होने पर सहृदय सामाजिक का स्थायिभाव उबुद्ध होकर रस रूप में परिणत हो जाता है । विभावनादि व्यापार के कारण विभावादि संज्ञा
उपर्युक्त तत्त्व काव्य-नाट्य में विभावादि क्यों कहलाते हैं ? कारण यह है कि लोकगत रत्यादि विभावों के कारण कार्य सहकारी तत्त्व काव्य-नाट्य में अवतरित होते ही विभावन, अनुभावन और संचारण (व्यभिचारण) का अलौकिक व्यापार प्रारम्भ कर देते हैं। सामाजिक की रत्यादि वासनाओं (स्थायिभावों) को आस्वाद रूप में अंकुरित होने योग्य बनाना, विभावन व्यापार है । इस रूप में अंकुरित वासनाओं को तत्काल रसरूप में परिणत करना अनुभावन व्यापार है । इस तरह अंकुरित एवं पल्लवित रत्यादि वासनाओं को समग्ररूप से पुष्ट करना संचारण या व्यभिचारण व्यापार है । इन व्यापारों के कारण ही उनके विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारिभाव नाम हैं।
१. काव्यप्रकाश, ४/३५ २. (क) “तत्र लोकव्यवहारे कार्यकारणसहचारात्मकलिंगदर्शने स्थाय्यात्म - परचित्तवृत्त्यनुमानाभ्यास एव
पाटवादधुना तैरेवोधानकटाक्षधृत्यादिभिलौकिकींकारणत्वादिभवमतिक्रान्तैर्विभावनानुभावनासमुपरज -कत्वमात्रप्राणैः अतएवालौकिकविभावादिव्यपदेशमाग्भिः --------"
___ - अभिनवभारती, आचार्य विश्वेश्वर, पृ. ४८३ (ख) “तत्र विभावनं रत्यादेविशेषेणास्वादांकुरणयोग्यतानयनम् । अनुभावमेवम्मू तस्य रत्यादेः समनन्तरमेव रसादिरूपतया भावनम् । सञ्चारणं तथाभूतस्येव तस्य सम्यक् चारणम् ।"
- साहित्यदर्पण, वृत्ति, ३/१३