Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
यद्यपि यहाँ (इन तीनों श्लोकों में से पहले श्लोक में मुग्धा दयिता रूप आलम्बन और वर्षा रूप उद्दीपन विभावों की, (दूसरे श्लोक में अंगम्लानि आदि) अनुभावों की और ( तीसरे श्लोक में ) औत्सुक्य, लज्जा, प्रसन्नता, कोप, असूया तथा प्रसाद रूप केवल व्यभिचारि भावों की ही स्थिति है । फिर भी इनके ( प्रकृत रति के बोध में) असाधारण ( लिंग ) होने से उनके द्वारा शेष दो का आक्षेप हो जाने पर (विभाव आदि तीनों के संयोग से रसनिष्पत्ति के सिद्धान्त का ) व्यभिचार नहीं होता है।
विभावादि के साधारणीकरण से रसोत्पत्ति
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यहाँ एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है कि काव्य में वर्णित जो सीतादि पात्र रामादि पात्रों के रत्यादि विभावों के उद्बोधक हैं, वे सामाजिक के रत्यादि भावों के उद्बोधक कैसे बन जाते हैं ? '
इसका समाधान यह है कि काव्य-नाट्य में साधारणीकरण नाम की शक्ति होती है, उससे विभावादि का साधारणीकरण हो जाता है और विभावादि के साधारणीकरण से सामाजिक के स्थायिभाव का साधारणीकरण होता है । साधारणीकरण से अभिप्राय यह है कि काव्य-नाट्य वर्णित राम-सीतादि पात्र अपनी राम सीतादि रूप विशेषतायें छोड़कर सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में उपस्थित होते हैं। अंतः उनके रत्यादि भाव, अनुभाव एवं संचारी भाव भी सामान्य स्त्री-पुरुष के भावों में परिवर्तित हो जाते हैं । इससे सामाजिक भी अपना व्यक्तिगत विशिष्ट रूप छोड़कर स्त्री या पुरुष मात्र रह जाता है। अर्थात् काव्य-नाट्य के पात्र तथा उनका साक्षात्कार करने वाला सामाजिक दोनों अपनी वैयक्तिकता से मुक्त होकर स्त्री-पुरुष मात्र रह जाते हैं। फलस्वरूप उनके रत्यादि भाव भी वैयक्तिकता से रहित होकर रत्यादि भाव मात्र शेष रहते हैं। इसे ही साधारंणीकरण कहते हैं। इस साधारणीकरण के होने पर काव्य-नाट्य के सीतादि पात्र, सामाजिक की रत्यादि के उद्बोधक हो जाते हैं । यही उनका विभावनादि व्यापार है । डॉ० नगेन्द्र ने इसे रामचरित मानस (बालकाण्ड दोहा २२६-२३१) से जनकवाटिका में गौरीपूजन के लिये आयी हुई सीताजी के प्रति राम के मन . में उत्पन्न हुए रतिभाव का उदाहरण देकर इस प्रकार स्पष्ट किया है -
१. ननु कथं रामादिरत्याद्युद्बोधकारणैः सीतादिभिः सामाजिकरत्याद्युद्बोध इत्युच्यते ?
- साहित्यदर्पण, वृत्ति ३/९
२. "भावकत्वं साधारणीकरणम् । तेन ही व्यापारेण विभावादयः स्थायी च साधारणीक्रियन्ते । साधारणीकरणं चैतदेव यत्सीतादिविशेषाणां कामिनीत्वादिसामान्येनो पस्थितिः । स्थाय्यनुभावादीनां च सम्बन्धिविशेषानवच्छिनत्वेन ।" काव्याकाश, टीकाकार - गोविन्द ठकुर, "रससिद्धान्त" पृष्ठ १९७ से उद्धृत ।