Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 229
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन . १७१ निर्वेद को उसका स्थायिभाव नहीं माना जा सकता है । उसके स्थान पर "शम'' को उसका स्थायिभाव मानना चाहिए । “निर्वेद" सब चित्तवृत्तियों का अभावरूप होता है, अतएव अभावरूप होने से उसको स्थायिभाव नहीं माना जा सकता है । इसके विपरीत निरीहावस्था में आत्मलीन होने से जो आनन्द आता है उसको "शम" कहते हैं । "शम" भावरूप है इसलिए शान्तरस का स्थायिभाव शम ही हो सकता है । निर्वेद को व्यभिचारी भाव माना जा सकता है। __वस्तुतः “निर्वेद" (वैराग्य-रागादि का अभाव) से उत्पन्न अवस्था का नाम "शम" है । "शम" के आस्वाद का नाम ही शान्तरस है । शान्तरस में आस्वादन “निर्वेद" का नहीं होता, शम का होता है इसलिए "शम" ही शान्तरस का स्थायिभाव है, निर्वेद नहीं। निर्वेद कारण है, "शम" कार्य (परिणाम) है। अभिनवगुप्त, काव्यानुशासनकार आचार्य हेमचन्द्र, नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र गुणचन्द्र तथा साहित्यदर्पणकार विश्वनाश आदि काव्यशास्त्रियों ने "शम" को ही शान्तरस का स्थायिभाव माना है। इस प्रकार "शम" स्थायिभाव के आस्वाद का नाम शान्तरस है । तत्त्वज्ञान, वैराग्य, चित्तशुद्धि आदि इसके विभाव हैं । यम, नियम, अध्यात्मध्यान, धारणा, उपासना, सर्वभूतदया, तथा संन्यास धारण आदि अनुभाव हैं । निर्वेद, स्मृति, धृति, शौच, स्तम्भ तथा रोमांच आदि व्यभिचारी भाव हैं। शान्तरस जयोदय महाकाव्य का अंगीरस है । प्रस्तुत महाकाव्य में २५ वें सर्ग से २८ वें सर्ग तक केवल शान्तरस का ही साम्राज्य है । शृंगारादि रस इसके अंगरस के रूप में प्रयुक्त हुए हैं । इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। वैराग्योन्मुख जयकुमार संसार की असारता के विषय में चिन्तन करता है। उसके चिन्तन का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन कर कवि ने शान्तरस की हृदयस्पर्शी धारा प्रवाहित की है - १. "अत्र वदन्ति शान्तो नाम रसस्तावदनुभवसिद्धतया दुरपहवः । स चैतस्य स्थावी निर्वेदो युज्यते । तस्य विष्येष्वलं प्रत्ययरूपत्वात् । आवावमान् रूपत्वाता । शान्तेश्च निखिलविषयपरिहारजनितात्ममात्रवित्रामानन्दप्रादुर्भावमयत्वानुभवात् । तदुक्तं (कृष्णादैपायनेन) "यच कामसुखं लोके यच दिव्यं महत्सुखम् । तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडषी कलां" इति । अतएव सर्वचित्तवृत्तिविरामोऽत्र स्थायी इति निरस्तम् । अमावस्य स्थायित्वायोगात् । तस्मात् शमोऽस्य स्थायी। निर्वेदादयस्तु व्यभिचारिणः । स च "शमो निरीहलवस्थायामानन्दस्वात्मविश्रमात्" इति । - काव्यप्रकाश, प्रदीप टीका

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