Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 233
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १७५ भाव देच, मुनि, गुरु, राजा एवं पुत्रादि के प्रति व्यक्त होने वाली रति भाव कहलाती है। इसके अतिरिक्त व्यंजना के द्वारा प्रतीत कराये गये व्यभिचारी भाव भी "भाव" शब्द से अभिहित होते हैं। जयोदय में अनेक स्थलों पर देव, गुरु, नृप एवं पुत्रादि के प्रति रतिभाव व्यक्त . किया गया है । विस्तारभय से यहाँ केवल देव एवं गुरु विषयक रति के उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं। देवविषयक रति ___ काशी नगरी के अधिपति अकम्पन युद्ध में अपने जामाता जयकुमार की विजय के पश्चात् सर्वप्रथम अर्हतदेव की पूजा करते हैं, जिससे उनकी देव विषयक रति प्रकट होती है - सपदि विभातो जातो भ्रातर्भवभयहरणविभामूर्तेः । शिवसदनं मूदुवदनं स्पष्टं विश्वपितुर्जिनसवितुस्ते ॥ ८/८९ मङ्गलमण्डलमस्तु समस्तं जिनदेवे स्वयमनुभूते । हीराया हि कुतः प्रतिपापाश्चिन्तामणी लसति पूते ॥ ८/९१ कलिते सति जिनदर्शने पुनश्चिन्ता काऽन्यकार्यपूर्तेः । किमिह भवन्ति न तृणानि स्वयं जगति धान्यकणस्फूर्तेः ॥ ८/९२ . निःसाधनस्य चार्हति गोप्तरि सत्यं निर्वसना भूस्ते । पुतये किं दीपैरुदयश्वेच्छान्तिकरस्य सुपासूतेः ॥ ८/९३ - हे भाई ! अब प्रभात हो गया । संसार के जन्म-मरणरूपी भय का नाश करने वाले विश्व के पिता जिन-सूर्य का कल्याणकारी मधुर मुख स्पष्ट दिखाई दे रहा है । जिनेन्द्र देव के दर्शन करने पर समस्त मंगल स्वयमेव सम्पन्न हो जाते हैं | चिन्तामणि रत्न के प्राप्त होने पर हीरा, पन्ना आदि से कोई प्रयोजन नहीं रहता | जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन होने पर कार्य के पूर्ण होने की क्या चिन्ता ? खेत में धान के बीज बोने पर घास स्वयमेव उग आती है । भगवान् अर्हत् जैसे योग्य संरक्षक के रहते यह भूमि समस्त आपत्तियों से शून्य हो जाती १. काव्यप्रकाश, ४/३५

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