Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 216
________________ १५८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन रस संख्या काव्यशास्त्रियों ने नौ स्थायिभावों के अनुरूप नौ ही रस माने हैं -- शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त । इन रसों के अतिरिक्त कुछ लोग भक्तिरस' एवं वात्सल्यरस को भी रस में परिगणित करते हैं । पर इनका आधारभूत मौलिक स्थायिभाव न होने से इन्हें रस नहीं माना जा सकता । ईश्वर, माता-पिता एवं गुरु वर्ग के प्रति रति ही भक्ति कहलाती है तथा बड़ों की छोटों के प्रति रति या स्नेह को वात्सल्य कहते हैं । मानव मन में भक्ति का प्रादुर्भाव सामाजिक परिस्थितियों से लोक-परम्परा के अनुसार होता है । इसमें श्रद्धा और स्नेह का सम्मिश्रण होता है । अतः भक्ति का एक निश्चित स्थायिभाव न होने से यह रस नहीं है । साहित्य-शास्त्र में देवता विषयक रति को "भाव" कहा जाता है, रस नहीं । इसी प्रकार बड़ों का छोटों के प्रति वात्सल्य रति का ही रूपान्तर है । अलग तात्त्विक मूल स्थायिभाव नहीं है । इसलिये साहित्यशास्त्रियों ने भक्ति एवं वात्सल्य को रस नहीं माना है अपितु उनकी गणना भावों में की है । अतः साहित्य-शास्त्र के अनुसार भक्ति एवं वात्सल्य को भाव मानना ही उचित है, रस नहीं । ____ इस प्रकार रस नौ ही हैं, दस या ग्यारह नहीं । जयोदय में रस जयोदय में शृंगार, हास्य, रौद्र, वीर, भयानक एवं वीभत्स रस की प्रभावशाली व्यंजना हुई है । इनमें शान्तरस काव्य का अंगीरस है, शेष रस उसके अंगभूत हैं । शृंगाररस . काव्य-नाट्य में वर्णित उत्तम प्रकृति के परम्परानुरक्त युवक-युवतियों की अनुरागमय चेष्टाओं का साक्षात्कार करने से सामाजिक का जो रतिभाव उद्बुद्ध होकर आनन्दात्मक अनुभति में परिणत हो जाता है वह शृंगार रस कहलाता है । शृंगार रस की दो अवस्थायें होती हैं - संभोग और विप्रलम्भ ।' इन दोनों अवस्थाओं में समान रूप से विद्यमान १. ब्रह्मानन्दो भवेदेष चेत् परार्द्धगुणीकृतः । नेतिभक्तिः सुखाम्भोधेः परमाणुतुलामपि ।। १९ ____स्पस्वामी भक्तिरसामृतसिन्धुपूर्वविभागे प्रथमा, सामान्य भक्ति लहरी । २. साहित्य दर्पण, ३/२५१-२५४ का पूर्वार्द्ध ३. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय ४. नाट्यशास्त्र, षष्ठ अध्याय

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