Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
१०६
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन यहाँ “सदङ्गभावात् अपि अनङ्गरम्यः” “अजडस्वभावात् अपि समुद्रः” तथा “न गोत्रभित् किन्तु सदा पवित्रः" प्रयोगों में शाब्दिक विरोध होने से विरोधाभास अलंकार है । इससे यह व्यंजित होता है कि जयकुमार उत्तम अंगों वाला होने से कामदेव के समान सुन्दर था । उसका जड़ स्वभाव (मंद बुद्धि) न होने से वह ऐश्वर्यशाली था । वह अपने गोत्र को मलिन नहीं करता था अतएव सदाचारी था । इस प्रकार यहाँ विरोधाभास जयकुमार के रूप सौन्दर्यातिशय एवं गुणातिशय का व्यंजक है ।
निम्न श्लोक में दिगम्बर मुनि के उत्कृष्ट चारित्र की अभिव्यंजना में विरोधाभास का प्रयोग अत्यन्त सफल हुआ है -
सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः ।
स राजापि तपस्वी सन् समक्षोऽप्यक्षरोधकः ॥ २८/५ मुनि जयकुमार सदाचारविहीन (सदा चार+विहीन भ्रमणरहित) होते हुए भी सदाचार परायण थे । राजा होकर भी तपस्वी थे । समक्ष होकर भी अक्षरोधक थे ।
सम्पूर्ण श्लोक में विरोधात्मक शब्दों का प्रयोग है अतः विरोधाभास अलंकार है । विरोध का परिहार इस प्रकार होगा -
मुनि जयकुमार परिभ्रमण का त्यागकर (एकान्त स्थान पर रहकर) स्वाध्याय, ध्यान आदि में रत रहते थे । राजा (सुन्दर शरीर वाले) थे । समक्ष (आत्म - सम्मुख) होकर इन्द्रियों को वश में करते थे।
दीपक
दीपक अलंकार के द्वारा स्त्रियों के सौन्दर्य की अत्यन्त प्रभावशालिता तथा पुरुषों के चित्त की अत्यन्त दुर्बलता का द्योतन बड़ी सफलता से हुआ है -
तनूनपादिर्गदनं तपादिः खण्डं तवाम्भोरुहरम्यपायिः।
समासमृदास विलासभाषादिभिर्नृतोऽपगलेत सकाशात् ॥ १६/४५ - अग्नि के द्वारा मैल (मदन) गल जाता है, जल के द्वारा शक्कर गल जाती है और कमलवत् सुन्दर चरणों वाली स्त्रियों के हास, विलास, सम्भाषण, अनुनय, विनय आदि से पुरुष का चित्त गल जाता है।
इन अलंकारों के अतिरिक्त महाकवि ने श्लेष, वक्रोक्ति, सम, स्मरण, उल्लेख, स्वभावोक्ति, हेतु, अनुमान, अन्यथानुपपत्ति, विरुद्धभाव, वाक्यालंकार, तर्क वितर्क, तद्गुण,