Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ऐसा तेली का बैल निरन्तर जिस प्रकार चक्कर लगाता रहता है। उसी प्रकार जिसकी विचारशक्ति आच्छादित है, स्वोपार्जित कर्म के आधीन है, पापाचार के दण्ड से मर्मस्थल में आघात को प्राप्त हो रहा है और परिग्रहरूप अतिभार को धारण किये हुए है। ऐसा यह मनुष्य संसार में भ्रमण करता रहता है।
_जीवों के संसारचक्र में परिभ्रमण की दशा कितनी दुःखद एवं दयनीय है, इसकी अनुभूति "भ्रमति तैलिकगौरिव नरः (तेली के बैल के समान घूमता है) मुहावरे से जितनी यथार्थता से होती है, उतनी किसी अन्य प्रयोग से सम्भव न थी ।
- इक्षुयष्टिरिवैषाऽस्ति प्रतिपर्वरसोदया । ३/४० पूर्वार्ष -- यह सुलोचना इक्षुयष्टि के समान पोर-पोर पर रस भरी है। .
"इक्षुयष्टिरिवैषा" यह तो इक्षुयष्टि के समान है । यह मुहावरा सुलोचना के अंगअंग की मनोहरता को व्यंजित कराने में अप्रतिम है । रूपकात्मक मुहावरे
जिन मुहावरों में रूपक अलंकार होता है, वे रूपकात्मक मुहावरे कहलाते हैं । इन मुहावरों में एक वस्तु में दूसरी वस्तु या उसके अवयव या धर्म का अस्तित्व बतलाया जाता है, जो अस्वाभाविक एवं अनुपपन्न होने से वैचित्र्य का जनक होता है तथा उन वस्तुओं में साम्य होने से लक्षणा एवं व्यंजना शक्तियों के द्वारा उपमानभूत पदार्थ उपमेयभूत पदार्थ की स्वरूपगत विशेषताओं को समष्टि रूप से प्रतीति का विषय बना देता है । कवि ने रूपकात्मक मुहावरों के प्रचुर प्रयोग द्वारा पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं एवं वस्तु तथा व्यक्ति के आह्लादक एवं भयानक स्वरूप की प्रभावशाली व्यंजना की है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
वर्द्धिष्णुरधुनाऽऽनन्दवारिधिस्तस्य तावता ।
इत्यमाहादकारियो गावः स्म प्रसरन्ति ताः ॥ १/१०२ . - मुनिराज के दर्शन कर जयकुमार का आनन्दरूपी समुद्र उमड़ पड़ा । उसकी आह्वादकारिणी वाणी फैलने लगी।
जयकुमार को मुनिराज के दर्शन से प्राप्त आनन्दातिशय की अभिव्यंजना में "आनन्दवारिधिः वर्धिष्णुः" (आनन्दरूप समुद्र उमड़ पड़ा), मुहावरे का प्रयोग अद्वितीय है।
श्रीपयो परभराकु लितायाः सं गिरा भुवनसं विदितावाः । . काशिकानृपतिचित्तकलापी सम्मदेन सहसा समवापि ॥ ५/५५