Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन रवियशा दुरितेन मुरीकृतः स भवता बत शीघ्रमुरीकृतः।
सदरिरप्यसदादविबरो भवतु सम्भवतुष्टिमतां परः ॥ ९/८० - अर्ककीर्ति ने दुर्भाग्य से जयकुमार का प्रतिवाद कर मुरराक्षस का कार्य किया, फिर भी आपके स्वामी ने उसे स्वीकार किया, यह खेद की बात है | महाराज तो सन्तोषी हैं, वे शत्रु-मित्र को समान दृष्टि से देखते हैं ।
प्रस्तुत श्लोक में "मुरराक्षस का कार्य" अनीतिपूर्ण कार्य का प्रतीक है । यह प्रतीक अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से उक्त भाव की अभिव्यंजना करता है । प्राणीवर्गीय प्रतीकः
कवि ने पात्रों के गुणों, अवगुणों की व्यंजना हेतु प्राणीवर्गीय प्रतीकों का अवलम्बन लिया है । यथा -
किमिष्यते भेकगतिश्च सूक्ता श्रीराजहंस्याः सुतनो प्रयुक्ता ।
पथाप्यवादीयत इष्टदेशः खलोपयोगाद् गवि दुग्धलेशः ॥ ५/१०३
- हे सुन्दर शरीरवाली ! तू राजहंसी है, अतः तुझे क्या मेढ़क की गति इष्ट हो सकती है ? इष्टदेश में गमन मार्ग द्वारा ही किया जाता है । खली खिलाने पर ही गाय में दूध होता है।
यहाँ "भेकगति" (मेढ़क की चाल) “साधारण स्त्री के व्यवहार" का प्रतीक है । इसी प्रकार -
मरालमुक्तस्य सरोवरस्य दशां स्वयाऽनापितमा प्रशस्यः ।
कश्चिा देशः सुखिनां मुदे स विशुद्धवृत्तेन सता सुवेश ॥ ३/२४ . - हे भले वेषवाले अतिथिवर ! आप विमल आचरण एवं सज्जनशिरोमणि हैं। सुखियों को भी आनन्द देने में प्रशंसनीय ! आपने किस प्रदेश को हंसविहीन सरोवर की दशा में पहुंचा दिया है ?
यहाँ "हंसविहीन सरोवर" शोभाहीनता का प्रतीक है।
इस प्रकार प्रतीकों का प्रयोग कर महाकवि ने वस्तु एवं भावों के अमूर्त एवं सूक्ष्म स्वरूप को हृदयंगम एवं हृदयस्पर्शी बनाया है तथा अभिव्यक्ति में रमणीयता का आधान कर शब्दों को काव्य में ढाला है।
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