Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
नन्वाश्रयस्थितिरयं तव कालकूट ! केनोतरोत्तरविशिष्टपदोपदिष्टा ॥ प्रागर्णवस्य हृदये वृषलक्ष्मणोऽथ कण्ठेऽधुना वसस्ववाचि पुनः खलानाम् ॥'
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प्रच्छजनिन्दास्तुतिमूलक अलंकार
इस अलंकार का नाम है " ब्याजस्तुति" । इसमें निन्दा वाच्य होती है और स्तुति व्यंग्य | इसी प्रकार स्तुति वाच्य होती है और स्तुति निन्दा गम्य ।
प्रतीकात्मक अलंकार
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अप्रस्तुत प्रशंसा के विशेषनिबन्धना तथा सारूप्य निबन्धना भेद (अन्योक्ति) तथा रूपकातिशयोक्ति प्रतीकात्मक अलंकार हैं। क्योंकि इनमें अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत द्योतन किया जाता है, प्रस्तुत वाच्य नहीं होता। यह अलंकार प्रस्तुत के सम्पूर्ण सन्दर्भ का व्यंजक होता है ।
कारणकार्यपौर्वापर्यविपर्ययात्मक अलंकार
यह अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद है । इसके द्वारा कारण की त्वरित कार्यकारिता या अत्यन्त प्रभावशालिता व्यंजित होती है।
प्रस्तुतान्यत्वनिरूपणात्मक अलंकार
यह भी अतिशयोक्ति का प्रकार विशेष है। इसमें वर्ण्यवस्तु को सजातीय वस्तुओं से भिन्न प्रतिपादित किया जाता है जिससे उसका लोकोत्तर स्वरूप व्यंजित होता है ।
आवृत्तिमूलक अलंकार
यद्यपि इस प्रकार के अलंकार का उल्लेख प्राचीन आचार्यों ने नहीं किया है तथापि पद विशेष की आवृत्ति से उक्ति में वैचित्र्य उत्पन्न होता है और वस्तु के महिमातिशय स्थिति की एकरूपता आदि की व्यंजना होती है अथवा अर्थविशेष पर बल पड़ता है । आचार्य आनन्दवर्धन ने पदपौनरुक्त्य को कहीं कहीं व्यंजकत्व का हेतु बतलाते हुए तत्साधवो न न विदन्ति विदन्ति किन्तु " यहाँ विदन्ति के पौनरुक्त्य को " वे ही सब कुछ अच्छी तरह
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काव्यप्रकाश ९० / ११७
२. " उक्ता ब्याजस्तुतिः पुनः । निन्दास्तुतिभ्यां वाच्याभ्यां गम्यत्वे स्तुतिनिन्दयोः !”
-साहित्यदर्पण, १०/५९-६०