Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
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सुरः समागत्यतमां स भद्रं सनागपाशं शरमर्धचन्द्रम् ।
ददौ यतश्वावसरेऽङ्गगवत्ता निगद्यते सा सहकारिसत्ता ॥८/७७॥
नागचर देव ने जयकुमार को नागपाश एवं अर्धचन्द्र बाण प्रदान किया । समय पर सहयोग देना ही सहकारी भाव कहलाता है ।
न चातुरोऽप्येष नरस्तदर्थमकम्पनं याचितवान् समर्थः । किमन्यकैर्जीवितमेव यातु न याचितं मानि उपैति जातु ॥१/७२ ॥
यद्यपि सामर्थ्यशाली जयकुमार सुलोचना के प्रति आतुर था फिर भी उसने
महाराजा अकम्पन से उनकी पुत्री सुलोचना के लिये याचना नहीं की । स्वयं का जीवन भले
ही समाप्त हो जाये, स्वाभिमानी किसी से याचना नहीं करता ।
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मनोवैज्ञानिक एवं धार्मिक तथ्यों के बल पर कर्तव्य विशेष के औचित्य की सिद्धि में अर्थान्तरन्यास का प्रभावपूर्ण प्रयोग निम्न पद्यों में मिलता है - अर्थशास्त्रमवलोकयेन्नृराट् कौशलं समनुभावयेत्तराम् ।
श्रीप्रजासु पदवीं व्रजेत्परां व्यर्थता हि मरणाद्भयङ्करा ॥ २/५९ ॥
सज्जन पुरुष अर्थशास्त्र का अध्ययन करे जिससे वह समाज में रहते हुए कुशलतापूर्वक जीवन यापन कर सके तथा प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके, अन्यथा दरिद्रता मरण से भी भयंकर दुखःदायिनी होती है ।
इत्थमात्मसमयानुसारतः
सम्प्रवृत्तिपर आप्रदोषतः । प्रार्थयेत् प्रभुमभित्रचेतसा चित्स्थितिर्हि परिशुद्धिरेनसाम् ॥ २/ १२२ ॥
- देशकाल के अनुसार प्रातः से सायंकाल तक समुचित प्रवृत्ति करने वाले गृहस्थ का कर्तव्य है कि चित्त को स्थिर रखकर परमात्मा का स्मरण करे, क्योंकि चित्त की स्थिरता ही पापों से बचाने वाली होती है ।
दृष्टान्त
दृष्टान्त अलंकार के निम्नलिखित प्रयोजन हैं: कथन के औचित्य का प्रतिपादन, उसका स्पष्टीकरण तथा भावातिरेक की व्यंजना ।
वड़वानल के दृष्टान्त से अर्ककीर्ति के क्रोध की भयंकरता का द्योतन संभव हुआ हैसंप्रसारिभिरौर्ववनृप समुद्रवारिभिः ।
भूरिशोऽपि मम
किं बदानि वचनैः स भारत-भूपभूर्न खलु शान्ततां गतः ॥ ७ / ७२ ॥
हे राजन् ! क्या कहूँ ? जिस प्रकार वड़वानल समुद्र के विपुलं जल से भी शान्त नहीं होता, उसी प्रकार मेरे द्वारा कहे गये सान्त्वनापूर्ण वचनों से अर्ककीर्ति ( का क्रोध ) शान्त नहीं हुआ ।