Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन की व्यंजना की गई है, जो अन्यथा संभव नहीं है । किसी फल की मिठास की प्रतीति मिश्री, गुड़ आदि की उपमा द्वारा ही कराई जा सकती है, शब्द द्वारा नहीं ।
समासोक्ति, आक्षेप, पर्यायोक्त आदि अलंकार व्यंग्यांश पर ही आश्रित होते हैं। इनकी व्यंजकता का स्पष्टीकरण आगे किया जायेगा। अलंकारात्मक कान प्रकार का वर्गीकरण
अलंकारात्मक कथन के प्रकार अनेकविध होते हैं, उन्हें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है.
सादृश्यमूलक, समर्थनमूलक, विरोधमूलक, मालात्मक (शृंखलात्मक) आक्षेपात्मक, पूर्वापरस्थितिवर्णनात्मक, निन्दास्तुत्यात्मक, प्रतीकात्मक, कारणकार्यपौर्वापर्यविपर्ययात्मक, प्रस्तुतान्यत्वविरूपणात्मक, आवृत्तिमूलक एवं पदक्रममूलक । सादृश्यमूलक अलंकार
उपमा, रूपक, उप्रेक्षा, ससन्देह, अपहृति, स्मरण, भ्रान्तिमान्, प्रतीक, सामान्य, निदर्शना, अनन्वय, उपमेयोपमा, समासोक्ति, क्रियादीपक, असम्भवार्थकल्पनात्मक अति - शयोक्ति, अप्रकृतार्थ तुल्ययोगिता और व्यतिरेक ये सादृश्यमूलक अलंकार हैं। इनमें अनन्वय और उपमेयोपमा का प्रयोग वस्तु की अनुपमता या अद्वितीयत्व के द्योतनार्थ किया जाता है। समासोक्ति के द्वारा प्रस्तुत पर अप्रस्तुत नायक - नायकादि के व्यवहार का व्यंजनाशक्ति से आरोप कर शृंगारादि की अभिव्यक्ति की जाती है। शेष अलंकारों के माध्यम से वस्तु के धर्माविशेष के विशिष्ट (लोकोत्तर, अतिशयित, अद्भुत आदि) स्वरूप की प्रतीति करायी जाती है। समानात्मक आतंकार
अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा समर्थनात्मक अलंकार हैं । इनका प्रयोग वस्तु स्वभाव के औचित्य के आधार पर किसी घटना या मानवीय आचरण का औचित्य सिद्ध करने के लिये होता है। १. "येषु पालतरेषु सादृश्यमुखेन तत्त्वप्रतिसम्मः यया रूपकोपमातुल्ययोगितानिदर्शनादिषु तेषु
गम्यमानधर्ममुखेनैव यत्सादृश्यं तदेव शोभातिशयशालि भवतीति ते सर्वेऽपि चारुत्वातिशययोगिनः
सन्तो गुणीभूतव्यत्यैव विषयाः । ध्वन्यालोक • ३/३६. २. "सनासोक्त्यायोपपर्यायोक्तादिषु तु गम्यमानांशाविनाभावेनैव तत्वव्यवस्थाना द्गुणीभूत तव्यंग्यता
निर्विवादेव" - वही