Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन "इस आधे छन्द में उपमा के अतिरिक्त कोई दूसरी भंगिमा अर्थ को विवृत करने में समर्थ नहीं होती, क्योंकि यहाँ अभिप्राय उपमा के द्वारा खुलने वाले अर्थों को एक साथ स्पष्ट करना है । रूपक की भाषा यहाँ उपयोजित होती तो अर्थ सम्पुटित हो जाता और कवि का उद्देश्य अधूरा रह जाता।'
एक दूसरा उदाहरण लिया जाय । महात्मा गाँधी के मरने पर इस रूप में उक्ति की प्रतिक्रिया अधिक सार्थक है - "सूर्य अस्त हो गया" वनिस्पत यह कहने के, कि महात्मा गाँधी रूपी सूर्य दिवंगत हो गया या महात्मा गाँधी की मृत्यु से ऐसा लगता है जैसे सारे देश में अन्धकार छा गया हो, क्योंकि शोक की आकस्मिकता की अभिव्यक्ति के लिए जिस संक्षिप्त और तत्काल प्रभावित करने वाले उक्ति प्रकार की आवश्यकता है, वह केवल “सूर्य अस्त हो गया" इस रूपकातिशयोक्ति से ही संभव है।
अलंकार व्यंजक होते हैं और उचित सन्दर्भ में प्रयुक्त होने पर उनकी व्यंजकता पैनी (हृदयस्पर्शी) हो जाती है । इसीलिए आनन्दवर्षन ने कहा है कि व्यंजकता के संस्पर्श से अलंकारों में चारुत्व आ जाता है।
१- चाँद का मुखझा (उपमा) २- मुखचन्द्र एकाएक उदित हुआ (रूपक) ३- यह चाँद अचानक कहाँ से प्रकट हो गया ? (रूपकातिशयोक्ति) ४- यह मुख तो चन्द्रमा को भी मात कर रहा है। (यतिरेक) ५- यह मुख नहीं है, यह तो पूर्णिमा का चन्द्र है। (अपाति) ६- यह मुब है या चन्द्रमा (सन्देड)
ये उक्तियाँ उपमात्मक, रूपकात्मक, रूपकातिशयोक्त्यात्मक व्यतिरेक, अपहुत्यात्मक तथा सन्देहात्मक होने से वैचित्र्यपूर्ण हैं । इनमें उपमादिरूप विचित्र कयन प्रकारों से चन्द्रमा और मुख के सादृश्य का वर्णन कर मुख के सौन्दर्यातिशय या अतिशय कान्तिमत्ता
१. रीतिविज्ञान : डॉ. विद्यानिवास मित्र २. वहीं ३. (क) वाच्यालझरवर्गो यं व्यंग्यांशानुगमे सति ।
प्रायेणैव परां छायां विप्रल्लक्ये निरीक्यते ।। ध्वन्यालोक - ३/३६ (ख) मुख्या महाकविगिरा-ध्वन्यालोक, ३/३७ (ग) तदेवं व्यंग्यांशसंस्पर्श, ध्वन्यालोक, पृष्ठ - ५०३