Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
८३
की व्यंजना तो होती है, चित्रात्मक प्रभाव की सृष्टि भी होती है ।' वर्ण्यवस्तु, व्यक्ति या घटना का चित्र आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है, मूर्तता और प्रत्यक्षता के प्रभाव की सृष्टि होती है ।
जयोदय में अनुभावात्मक मुहावरों के प्रयोग से मनःस्थिति की अभिव्यक्ति एवं चित्रात्मकता की सृष्टि सरलतया हो सकी है। यथा
कल्यां समाकलय्योग्रामेनां भरतनन्दनः । रक्तनेत्रो जवादेव बभूव क्षीवतां गतः ॥ / ७
भरतनन्दन अर्ककीर्ति, दुर्मर्षण की उग्र (कटु) वाणी रूप मदिरा का पान कर शीघ्र ही उन्मत्त हो गया । उस मदिरा के प्रभाव से उनके नेत्र लाल हो गये । कवि ने 'रक्त नेत्र' मुहावरे के द्वारा क्रोध से उत्पन्न अवस्था को सरलतया प्रतीतिगम्य बना दिया है।
फुल्लदानन इतोऽभिजगाम यस्य दुर्मतिरितीह च नाम ।
सानुकूल इव भाग्यक्तिस्तिस्तद्भविष्यति यदिच्छितमस्ति ॥ ४/४७
दुर्मति सोचने लगा - मेरी इच्छानुरूप ही कार्य होता दिखाई दे रहा है । ऐसा लगता है कि भाग्य अनुकूल है। इस प्रकार खिले ( हर्षित) मुखवाला वह दुर्मति वहाँ से
चला गया।
"फुल्लदाननः " ( खिले हुए मुखवाला) मुहावरा प्रयोग हर्षातिरेकमयी मनोदशा का साक्षात्कार करा देता है, जो किसी अन्य उक्ति द्वारा संभव नहीं है ।
उपमात्मक मुहाव
उपमात्मक मुहावरों के द्वारा कवि ने संसार की विचित्रता सौन्दर्यातिशय तथा पात्रों की विडम्बनात्मक स्थितियों का प्रभावकारी चित्रण किया है । यथा
पिहितदृष्टिरसौ परतन्त्रितः सपदि मर्मणि दण्डनियन्त्रितः ।
बहुभरं भ्रमतीत्वमयोद्धरन् जगति तैलिकगौरिव हा नरः ॥ २५/४४
-
• जिसकी आँखें पट्टी से ढकी हुई हैं, जो तेली के पराधीन है, रुक जाने पर
जिसके मर्मस्थल में चोट पहुँचाई जाती है और जो पत्थर आदि का बहुत भार लादे हुए है,
9. हरदेव बाहरी हिन्दी सेमेटिक्स, पृ० २८५
२. शैली विज्ञान और प्रेमचन्द की भाषा, पृ० ९९