Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
विलोकनेनास्यनिशीषनेतुः समुल्वणे सद्रससागरे तु । . द्रुतं पुनः सेति पदंवदोऽहमुचैःस्तनं पर्वतमारुरोह ॥ ११/३ . जिनेन्द्रदेव पर सूर्य का आरोप उनके अज्ञानान्धकार के विनाशक एवं ज्ञानप्रकाश के प्रसारक होने की चारुत्वमयी यंजना करता है -
"हे भाई! अब प्रभात हो गया है । संसार के जन्ममरणरूपी भय के नाशक, विश्व के पिता जिनसूर्य का मुख स्पष्ट दिखाई दे रहा है।" -
__ सपदि विभातो जातो भ्रातर्भवभयहरणविभामूर्तेः ।
शिवसदनं मृदुवदनं स्पष्टं विश्वपितुर्जिनसवितुस्ते ॥ ८/८९ क्रोध के अत्यन्त घातक होने की व्यंजना क्रोध पर अग्नि के आरोप से ही संभव हो सकी है -
"निस्सार संसार में मेरी क्रोधाग्नि के प्रभाव से नाथवंश और सोमवंश शीघ्र ही नष्ट हो जावेंगे।"
निःसार इह संसारे सहसा मे सप्तापिः ।
नाबसोमाभिषे गोत्रे भवेतां भस्मसात्कृते ॥ ७/२४ इस प्रकार कवि ने क्रोध, प्रेम, सन्ताप, भक्ति आदि मनोभावों के अतिशय की व्यंजना, मनोदशाओं की विचित्रता, परिस्थितियों की विकटता तथा वस्तु के सौन्दर्य - असौन्दर्य आदि की पराकाष्ठा के द्योतन, दया, शौर्य, औदार्य आदि गुणों की उत्कटता के प्रकाशन, रूपादि के अवलोकन एवं वचनादि के श्रवण में विद्यमान तल्लीनता के अनुभावन इत्यादि प्रयोजनों की सिद्धि के लिए वक्रता के विभिन्न प्रकारों का आश्रय लिया है, जो अत्यन्त सफल रहा है। उक्ति की वक्रता के द्वारा मनोभावों, मनोदशाओं, मानवीय गुणों एवं वस्तु के उपर्युक्त वैशिष्ट्यों की साक्षात्कारात्मिका अनुभूति से सहृदय हृदय आन्दोलित हो उठता है और भावमग्न तथा रसमग्न हो जाता है । उक्ति के वैचित्र्य से अभिव्यक्ति अत्यन्त रमणीय बन गयी है। वाक्यकाता एवं वर्णविन्यासकाता
वर्णविन्यासवक्रता का विवेचन स्वतंत्र अध्याय में किया गया है । वाक्यवक्रता अर्थालंकारों का दूसरा नाम है, जैसा कि कुन्तक ने कहा है -
- वाक्यस्य भावोऽन्यो भियते यः सहमशः।
पत्रालारवर्गोऽसौ सर्वोऽप्यन्तर्भविष्यति ॥ - कक्रोक्तिजीवित, १/२० ।
अतः इसका अनुशीलन भी “अलंकारविन्यास" नामक पृथक् अध्याय में किया गया है।