Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
- हे राजन् ! चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति तो इस समय उत्तेजित सिंह के समान दुर्निवार हो गया है । हमारी एक भी नहीं सुनता ।
यहाँ “दुर्निवार" पद में “दुर्' उपसर्ग अर्ककीर्ति के क्रोध की उद्दामता का प्रकाशन कर रौद्र रस के उद्दीपन विभाव की योजना में सहायक बन गया है। अतः इस उपसर्ग में अपूर्व वक्रता सुशोभित हो रही है । निपातककता
निपात भी जहाँ भावविशेष की व्यंजना द्वारा रसधोतन में सहायक होता है, वहाँ निपातककता होती है।' जयोदय के निम्न पदों में इस वक्रता का विलास दृष्टव्य है - (क) गणरुचिः कमला प्रतिदिमुखं सुरधनुश्चलमैन्द्रियकं सुखम् ।
विभव एष च सुप्तविकल्पवदहह दृश्यमदोऽखिलमधुवम् ॥ २५/३ ___- धन सम्पत्ति बिजली की चमक के समान क्षणस्थायी है, इन्द्रिय-सुख इन्द्रधनुष के समान चंचल है और पुत्र-पौत्रादिरूप यह वैभव स्वप्न के समान असत्य है । अहो ! यह समस्त दृश्यमान जगत् अनित्य है।
यहाँ “अहह" निपात संसार के समस्त पदार्थों की क्षणभंगुरता की प्रतीति से उत्पन्न आश्चर्य एवं निर्वेद का द्योतन करता है,क्योंकि अभी तक उन्हें स्थायी मान रखा था । यह तत्त्वज्ञान जन्य आश्चर्य एवं निर्वेद शान्तरस की अनुभूति का हेतु है । इसप्रकार उक्त निपात वक्रता से समन्वित है।
(ब) यदि को जयैषिणी त्वं दृक्शारविदं ततशिक्लिमेनम् । . अवि बालेऽस्मिन् काले मजा बघानाविलम्बेन ॥ ६/११६
__ - बुद्धिदेवी स्वयंवर सभा में राजकुमारों का परिचय देती हुई जब राजा जयकुमार के समीप आती है तब सुलोचना से कहती है - "अरी बाले! यदि तू विजय चाहती है, तो इस समय इस राजकुमार को वरमाला के बंधन से बाँध ले; क्योंकि इस समय यह तेरे दृग्बाणों से घायल होकर शिथिल हो रहा है।
__ इस उक्ति में "भो" और "अयि" निपात बुद्धिदेवी के वात्सल्य-भाव, हितैषिता एवं आग्रह के द्योतक हैं, जो वात्सल्यरस के अभिव्यक्ति के निमित्त हैं। .
१. रसादिद्योतनं यस्यमुपसर्गनिपातयोः ।
वाक्यैकजीवितत्वेन सा परा पदवक्रता ।। वक्रोक्तिजीवित, २/३३