Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन मानव के साथ तिर्यंच के धर्म का प्रयोग
-क्रोधातिशय की व्यंजना के लिए निम्न उक्तियों में मानव के साथ सिंह के धर्म "गर्जना करना" का प्रयोग किया गया है -
"तीव्र प्रहार के कारण मूर्छित योद्धा पर हाथी की सैंड के जलकण गिरे तो वह होश में आकर गर्जना करने लगा ।".
दृढप्रहारः प्रतिपय मूर्छामिभस्य हस्ताम्बुकणा अतुच्छाः ।
जगर्न कश्चित्त्वनुबद्धवैरः सिक्तः समुत्थाय तकैः सखैरः।। ८/२६ ॥ स्वयंवर सभा में सुलोचना द्वारा वरण न किये जाने पर अपमानित अर्ककीर्ति अपने मित्र दुर्मर्षण से कहता है - "मेरा गर्जन सुनकर राजहंस (राजागण) भाग जाते हैं।" .
तदेतद्राजहंसानां गर्जनं हि विसर्जनम् ।७/२३ उत्तरार्थ जयकुमार के सौन्दर्यातिशय एवं श्रेष्ठ गुणों की व्यंजना कवि ने उस पर हंसत्व के आरोप द्वारा की है -
"राजा जयकुमार भगवान् ऋषभदेव की सभा के एक हंस थे । वे सहृदयों के सखा एवं वंशरूपी विशाल सरोवर के हंस थे।"
युगादिभर्तुः सदसः सदस्य इत्यस्मदानन्दगिरां समस्यः ।
हंसः स्ववंशोरुसरोवरस्य श्रीमानभूच्छीसुहृदां वयस्यः।। १/४३ जड़ के साथ चेतन के धर्म का प्रयोग
"हंसी उड़ाना" मानव का धर्म है, वह जड़ के साथ प्रयुक्त होकर सौन्दर्य की अनुपमता का व्यंजक हो गया है -
"सुलोचना के विवाह हेतु निर्मित मण्डप अत्यन्त विशाल था । वह अपने शिखर पर जड़े हुए रत्नों की कान्ति से इन्द्र के विमान की हंसी उड़ा रहा था।"
विशालं शिखरप्रोतवसुसञ्चयशोचिषाम् ।
निचयैस्तु सुनाशीर-व्योमयानं जहास यत् ॥ १०/८६॥ उपचारवक्रता के द्वारा लक्षणा और व्यंजना की सामर्थ्य से "हंसना" क्रिया शोभातिशय की व्यंजना में समर्थ हो गयी है -
"विवाहोत्सव के अवसर पर काशी नगरी के भवनों के मुख्यद्वार मुक्ताहारों से सुशोभित किये गये थे । वे मोतियों की कान्ति से हंसते हुए से प्रतीत होते थे।".