Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन अन्य कर्ता की अपेक्षा विचित्र (अद्भुत) क्रिया के सम्पादन का कथन, (४) विशेषण के द्वारा क्रिया में अर्थविशेष के व्यंजकत्व का आधान, (५) रमणीयता का बोध कराने के लिए अन्य पर अन्य की क्रिया का आरोप, (६) किसी अतिशय या अनिर्वचनीयता की प्रतीति हेतु क्रिया के कर्मादि कारकों की संवृति, ये क्रियावैचित्र्यकता के रूप हैं।' जो असंलक्ष्यक्रमव्यंग्यध्वनि के हेतु हैं । इसमें धातु का अर्थ व्यंजक होता है । ध्वनिकार आनन्दवर्धन ने इसे तिमन्त व्यंजकता कहा है । जयोदय में क्रियावैचित्र्यवक्रताजन्य चमत्कार निम्न उदाहरणों में देखा जा सकता है - (क) चालितवती स्वलेऽत्रामुकगुणगतवाचि तु सुनेत्रा ।
कौतुकितयेव वलयं सांगुष्ठानामिकोपयोगमयम् ॥ ६/३२ - बुद्धिदेवी राजकुमारी सुलोचना को स्वयंवर सभा में आये हुए राजकुमारों का क्रमशः परिचय कराती है । जब उसने कामरूप के राजा के गुणों का वर्णन किया तब उसे सुन लेने के बाद सुलोचना ने अनामिका अंगुली और अंगूठे के द्वारा अपने कंगन को घुमा दिया जो ऊपर से ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसने विनोदभाव से घुमाया हो।
यहाँ “वलयं चालितवती" क्रिया बुद्धिदेवी को आगे बढ़ने के आदेश की व्यंजकता करती हुई वर्ण्यमान राजा में सुलोचना की अरुचि का द्योतन करती है । इस क्रिया के द्वारा कवि ने सुलोचना के अभिप्राय को अत्यन्त शालीनतापूर्वक व्यंजित करने का कौशल दिखलाया
(ब) अध्यात्मवियामिव भव्यवृन्दः सरोजराजि मधुरां मिलिन्दः ।
प्रीत्या पपी सोऽपि तकां सुगौरगावी यथा चन्द्रकलां चकोरः ॥१०/११८ • वर जयकुमार ने भी गौरवर्णा सुलोचना को उसी प्रकार प्रेम से पिया (अनुरागपूर्वक देखने में तल्लीन हुआ) जैसे भव्यजीव अध्यात्मविद्या को, भ्रमर कमलपंक्ति को तथा चकोर चन्द्रमा को पाकर प्रेम से पान करता है ।
. प्रस्तुत उक्ति में "पपौ" (पिया) क्रिया का प्रयोग जलादि तरल पदार्थों को पीने के लोकप्रसिद्ध अर्थ में न कर, सुन्दर युवती को पीने के अलोकप्रसिद्ध अर्थ में किया गया है, इसलिए यहाँ क्रियावैचित्र्यवक्रता है । इस विचित्र प्रयोग से उक्त में चारुत्व के आविर्भाव के साथ-साथ जयकुमार के सुलोचना को देखने में तल्लीन हो जाने तथा इस व्यापार से
१. कतूरत्यन्तरङ्गत्वं कर्बन्तरविचित्रता । सविशेषणवैचित्र्यमुपचारमनोझता ।। कर्मादिसंवृतिः पञ्च प्रस्तुतौचित्यचारवः । क्रियावैचित्र्यवक्रत्वप्रकारास्त इमे स्मृताः ।।
वक्रोक्तिजीवित, २/२४-२५