Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन लिंगवैचित्र्यवकता
मौमार्य या शृंगाररस की अनुभूति कराने के लिए अन्य लिंगवाची शब्द को छोड़कर स्त्री. गवाची शब्द के प्रयोग में लिंगवैचित्र्यवक्रता होती है । भाषिक सौन्दर्य उत्पन्न करने हेतु एक ही वस्तु के लिए एक साथ भिन्नलिंगीय शब्दों का प्रयोग तथा जो मानवीय भाव या क्रिया जिस लिंग के व्यक्ति के स्वभाव से अधिक अनुरूपता रखती है उस भाव या क्रिया के प्रसंग में उसी लिंगवाले शब्द का प्रयोग भी लिंगवैचित्र्यवक्रता में आता है।' ध्वनिकार के अनुसार यह लिंग की व्यंजकता है । जयोदय में इसके उदाहरण अधिक नहीं हैं । एक उदाहरण दर्शनीय है -
रेजिरे रदनखण्डितोष्ठया हस्तपातकलितोरुकोष्ठया ।
निर्गलत्सघनधर्मतोयया तेऽञ्चिताः खलु रुषा सरागया ॥ ७/९६ - उस समय योद्धागण नेत्र मुख आदि को सराग (लाल) कर देने वाली क्रोधाग्नि (रुष) के द्वारा आलिंगित कर लिये गये, जिसके वशीभूत हो वे दाँतों से ओंठ काटने लगे, जंघाओं के ऊपरी भाग पर हाथ पटकने लगे (जंघा ठोकने लगे) तथा उनके शरीर से पसीना बहने लगा।
ये सब क्रियायें तब भी होती हैं जब कोई सराग (कामासक्त) प्रियतमा अपने प्रियतम का आलिंगन करती है । अतः यहाँ समासोक्ति अलंकार के माध्यम से इस शृंगारात्मक अर्थ की व्यंजना के लिए पुल्लिंगवाचक “रोष' शब्द के स्थान में स्त्रीलिंगवाची रुष (रुषा - तृतीया एकवचन) शब्द का प्रयोग किया गया है ताकि उससे किसी “रूष्" नामक नायिका का अर्थ व्यंजित हो सके। क्रियावैचित्र्यवक्रता
(१) वस्तु के वैशिष्ट्य को व्यंजित करने के लिए विशिष्ट अर्थ वाली धातु का प्रयोग, (२) कर्ता के द्वारा अलोकप्रसिद्ध क्रिया के सम्पादन का कथन, (३) कर्ता के द्वारा १. भिन्नयोर्लिङ्गयोर्यस्यां समानाधिकरण्यताः ।
कापि शोभाभ्युदेत्येषा लिंङ्गवैचित्र्यवक्रता ।। सति लिंगान्तरे यत्र स्त्रीलिङ्गं च प्रयुज्यते । शोभा निष्पत्तये यस्मानामैव स्त्रीति पेशलम् ।। विशिष्टं योज्यते लिङ्गमन्यस्मिन् संभवत्यपि । यत्र चिच्छित्तये सान्या वाच्यौचित्यानुसारतः ।। वक्रोक्तिजीवित, २/२१, २२, २३