Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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वक्रोक्तिजीवितकार राजानक कुन्तक ने वक्रोक्ति के जितने भेद बतलाये हैं उन सबसे जयोदय की काव्यभाषा बुनी गयी है । वह रूढ़िवैचित्र्यवक्रता, पर्यायवक्रता, विशेषणवक्रता, संवृतिवक्रता, वृत्तिवैचित्र्यवक्रता, लिंगवैचित्र्यवक्रता, क्रियावैचित्र्यवक्रता, कारकवक्रता, संख्यावक्रता, पुरुषवक्रता, उपसर्गवक्रता, निपातवक्रता, उपचारवक्रता और वर्णविन्यासवक्रता के तानों-बानों से अनुस्यूत है । पर्यायवक्रता का एक सुन्दर निदर्शन द्रष्टव्य है :
भूपालबाल किलो ते मूदुपल्लवशालिनः।।
कान्तालसबिधानस्य फलतात् सुमनस्कता ॥ १/११२ - - हे राजकुमार ! तुम मृदुभाषी हो और तुम्हारा गृह कान्ता से सुशोभित है । तुम्हारा सौमनस्य क्या सफल नहीं होगा ?
यहाँ स्त्री, नारी, अबला अथवा गृहिणी, पली आदि पर्यायवाचियों को छोड़कर 'कान्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, जो अत्यन्त प्रासंगिक है । क्योंकि 'कान्ता' शब्द सौन्दर्य का द्योतक है, इसलिए उसके प्रयोग द्वारा स्त्री से गृह के सुशोभित होने का औचित्य सिद्ध हो जाता है।
कारकवक्रता के अभिव्यंजनात्मक चारुत्व का उदाहरण अधोलिखित पद्य में देखा जा सकता है :
भूयो विरराम करः प्रियोन्मुखः सन्नगन्वितस्तस्पाः ।
प्रत्याययो दृगन्तोऽप्यर्षपधावपलताऽऽलस्यात् ॥ ६/११९ - सुलोचना जयकुमार के गले में वरमाला डालना चाहती थी, किन्तु उसका हाथ जयकुमार के सम्मुख जाकर भी बार-बार बीच में ही रुक जाता था। इसी तरह उसकी दृष्टि भी चपलता तथा आलस्यवश बीच रास्ते से लौट आती थी ।
यहाँ अचेतन हाथ और दृष्टि कर्मकारक हैं (वह हाथ को रोक लेती थी और दृष्टि को लौटा लेती थी)। किन्तु चेतन की क्रिया का आरोप कर उनका चेतन के समान कर्ताकारक के रूप में प्रयोग किया गया है । इससे उक्तिवैचित्र्यजन्य चारुत्व के साथ इस भाव की अभिव्यक्ति होती है कि सुलोचना का अंग-अंग लज्जाभाव से अनुशासित था, इसलिए वे अपने-आप लज्जाशीलता का आचरण कर रहे थे अर्थात् सुलोचना अत्यधिक लज्जालु थी और इन्द्रियों पर उसका पूर्ण नियंत्रण था।
मुहावरे अभिव्यक्ति के लोकप्रसिद्ध लाक्षणिक एवं व्यंजक माध्यम हैं । इनसे अभिव्यंजना पैनी एवं रमणीय हो जाती है । 'जयोदय' में मुहावरों के प्रयोग से भावद्योतन में जो तीक्ष्णता एवं रोचकता आयी है उसका अनुभव निम्नलिखित उदाहरण से किया जा सकता है :-.
वेशवानुपजनाम जयोऽपि येन सोऽय शुशुभेऽमिनयोऽपि । लोकलोपिलवणापरिणामः स स नीरमीरपति व कामः ॥ ५/२६