Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन (५) समयसार टीका - यह कुन्दकुन्दचार्य प्रणीत "समयसार" पर आचार्य
जयसेन द्वारा लिखी तात्पर्यवृत्ति नामक टीका का
हिन्दी अनुवाद है। इन कृतियों से भूरामलजी अर्थात् आचार्य ज्ञानसागरजी की प्रखर मेधा, बहुश्रुतता एवं रचनाधर्मिता का निदर्शन मिल जाता है | . .. आचार्यश्री प्रदर्शन की प्रवृत्ति से कोसों दूर सहज प्रकृति के साधु थे । वे प्रचार प्रसार के फेरे में कभी नहीं पड़े । अपनी कृतियों के प्रकाशन और वितरण के मोह से भी मुक्त थे । पण्डित हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्री व व्यावर जैन समाज के प्रयत्नों से ही आपकी कृतियाँ "मुनि ज्ञानसागर ग्रन्थमाला" व्यावर से प्रकाश में आईं । मदनगंज किशनगढ़ में जब महाराजश्री से उनके निकट एक भक्त ने यह पूछा कि -- “महाराज ! आज जिसकी साहित्य में जरा सी भी पहुँच है, वह भी अपने आपको बहुत बड़ा मान रहा है । आप साक्षात सरस्वती के वरद पुत्र होकर भी समाज के क्षेत्र में ही अपरिचित से हैं"; तो आपका उत्तर था -- "भैया ! मैं तो साधक हूँ, प्रचारक नहीं । आत्मकल्याण का मार्ग पकड़ा है, उसमे मैं भटक जाता यदि प्रचार के लोभ में पड़ता तो । साधना का यह आदर्श निश्चय ही अनुकरणीय है । वे साधु के लिए अधिक जनसम्पर्क से बचने की बात भी अक्सर कहा करते थे।" . महाकवि भूरामलजी (आचार्य ज्ञानसागरजी) के इस व्यक्तित्व एवं कृतित्व का अवलोकन करने से हम पाते हैं कि महाकवि उन लोकोत्तर मानवों में से होते हैं, जो इन्द्रिय-व्यसनों के कीट बनकर जीवन को निरर्थक करने के लिए उत्पन्न नहीं होते, अपितु विषयभोग-गर्हित जीवन से ऊपर उठकर आत्मा की साधना हेतु अवतरित होते हैं । ऐसे मानव के लक्षण होते हैं ज्ञान की तीव्र-पिपासा और कुछ नया अनोखा कर गुजरने की उत्कट आकांक्षा, वैषयिक जीवन के प्रति हेय-दृष्टि तथा विपरीत परिस्थितियों में अपराजेय भाव से संघर्ष की प्रवृत्ति, लक्ष्य के प्रति एकाग्रता एवं उसे पाने का अनवरत उद्यम । महाकवि भूरामलजी इन्हीं गुणों की प्रतिमा थे । साथ ही इस प्रतिमा में था कवित्व की नैसर्गिक प्रतिभा का कलात्मक लावण्य, जिसकी रमणीयता से मण्डित विपुल साहित्य कवि की लेखनी से प्रसूत हुआ । इतना ही नहीं, कवि का गुरुत्व एवं आचार्यत्व भी इतना लावण्यमय था कि जिनका स्पर्श पाकर विद्याधर जैसे शिष्य विद्यासागरत्व की रत्नमयी आभा से मण्डित हो गये।
१. कुन्दकुन्द वाणी (मासिक), आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज स्मृति अंक, पृष्ठ -२५, मई १९९०