Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
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करती है ।" (पृष्ठ-४०)
" जिसने अपने ज्ञान को निर्दोष बना लिया है, जिसका मन भी सच्चा है तथा जिसका आचरण भी पुनीत-प -पावन बन चुका हो तथा जिनके पास ऐसे तीन बहुमूल्य ग्लों का खजाना हो, उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों में अनायास ही मफलता प्राप्त हो जाती है । वह तीनों पुरुषार्थों में मफल होकर अन्त में मोक्ष पुरुषार्थ के माधन में जुट कर के अपवर्ग यानि मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है ।" (पृष्ट-९८)
सचित्त विवेचन
प्रस्तुत कृति में सचित्त और अचित्त वस्तुओं का प्रामाणिक विवेचन आगम के आधार पर किया गया है। सचित्त से तात्पर्य है जो जीव सहित हो "सहचित्तेन जीवेन भावेन वर्तते तत्सचित्तम् | "
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये सभी एक इन्द्रिय जीव हैं, अतः ये सचित्त कहे जाते हैं। मानव इनका दैनिक जीवन में प्रयोग करता है। परिणामस्वरूप हिंसा होती है । मानव हिंसा से बचे और इन्द्रिय-मंयम का पालन करे, इसके लिए आवश्यक है कि वह सचित्त पदार्थों को अचित्त रूप में परिवर्तितकर उनका प्रयोग करे ।
महाकवि ने मचित्तों की रक्षा के अनेक उपाय बतलाये हैं । यथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से बचने के लिए पृथ्वी पर देखकर चले, प्रत्येक वस्तु सावधानीपूर्वक रखे - उठावे | जल के जीवों की रक्षा के लिए दोहरे वस्त्र से छानकर उसमें लवंग, इलायची डाल दे या गरम कर उसे अचित्त बनाये । इस अचित्त जल का प्रयोग करे ।
शाक - फल आदि वनस्पति के अन्तर्गत हैं, जिन्हें दो प्रकार से अचित्त बनाया जा सकता है- अग्नि पर पकाकर तथा मुखा कर काष्ठादि रूप में परिवर्तित करके । आचार्य श्री ने सचित्त पदार्थों को अचित्त बनाने के सरल उपाय बतलाये हैं, अनन्तर सचित्त और अभक्ष्य में अन्तर स्पष्ट किया है। सचित्त के त्याग का महत्त्व कवि के शब्दों में देखिये " सचित्ताहार त्यागने से जिह्वादि इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। वात, पित्त, कफ का प्रकोप न होने से शरीर नीरोग रहता है । काम-वासना मन्द पड़ जाती है । चित्त की चपलता घटती है, अतः धर्मध्यान में प्रवृत्ति होकर सहज रूप में जीव दया पलती है । " स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैनधर्म
इस कृति में महाकवि ने जैनधर्म के प्रामाणिक आचार्य कुन्दकुन्द का आचार्य
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