Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
View full book text
________________
४५
जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन
जम्बूद्वीप के विदेह क्षेत्र में पुण्डरीकिणी नगरी है । वहाँ कुबेरप्रिय सेठ सपत्नीक रहता था। उसके यहाँ रतिवर कबूतर और रतिषेणा नामक कबूतरी रहती थी । एक दिन सेठ ने दो मुनियों को आहारदान दिया । मुनिराज के दर्शन से कपोत युगल को जातिस्मरण हुआ । अब उस युगल ने ब्रह्मचर्य धारणकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया । धर्म के प्रभाव से दोनों ने मनुष्य जन्म धारण किया । विजयार्ध पर्वत के एक शासक आदित्यगति एवं रानी शशिप्रभा के यहाँ रतिवर के जीव ने "हिरण्यवर्मा" पुत्र के रूप में जन्म लिया। इसी पर्वत पर अन्य राजा वायुरथ और रानी स्वयंप्रभा थी। रतिषेणा उनके यहाँ "प्रभावती" नामक पुत्री हुई । इस जन्म में भी हिरण्यवर्मा और प्रभावती का विवाह हुआ । संसार के विचित्र स्वरूप को जानकर दोनों ने जिनदीक्षा अंगीकार की। .
एक दिन पूर्वभव के वैरी विद्युतचोर ने जब इन्हें तप करते हुए देखा तो क्रोधावेश में आकर इन मुनि तथा आर्यिका को जला दिया । समताभाव पूर्वक शरीर का त्यागकर उन्होंने स्वर्ग में जन्म लिया । स्वर्ग से एक बार ये दोनों स्वेच्छा से भ्रमण करते हुए सर्प-सरोवर के समीप पहुँचे । वहाँ आत्महित में संलग्न केवली के दर्शनकर देव दम्पत्ति हर्षित हुए । उनसे संसार की विचित्रता का सन्देश प्राप्त हुआ । उन्होंने बतलाया कि जब देव (कबूतर का जीव) कबूतर जन्म से पूर्व सुकान्त के रूप में जन्मा था उस समय वह उसके भवदेव नामक शत्रु थे। फिर वह कबूतर के जन्म समय बिलाव एवं हिरण्यवर्मा की जन्मावधि में विधुचोर के रूप में उनके शत्रु बने थे । वर्तमान में वे भीम नामक केवली हैं। इस प्रकार सुलोचना ने स्पष्ट किया कि जयकुमार ने ही सुकान्त, रतिवर कबूतर, हिरण्यवर्मा और स्वर्ग के देव के रूप में जन्म लिया था और वे ही इस जन्म में उसके पति बने ।
सुलोचना ने अपने पति द्वारा किये प्रश्न के उत्तर में उक्त कथानक कहा, जिससे सपलियों का सन्देह सहज ही दूर हो गया । विद्याधर के जन्म में सिद्ध की गई विद्याओं ने भी यहाँ इनका दासत्व स्वीकार किया। पूर्व जन्म के इस वृत्तान्त से संसार की क्षणभंगुरता जानकर जयकुमार और सुलोचना वस्तु-स्वरूप का चिन्तन करते हैं | धर्म के प्रति उनकी रुचि और भी दृढ़ हो जाती है। चतुर्विशतितम सर्ग
विद्याओं के प्राप्त होने पर जयकुमार और सुलोचना की तीर्थाटन करने की इच्छा होती है । विद्याओं की सहायता से गगन-विहार करते हुए वे सुमेरु पर्वत पर जाते हैं । वहाँ पर सोलह जिनालयों की वन्दना करते हैं । तदनन्तर वे गजदन्त पर्वतों, विशाल वक्षारगिरियों, इष्वाकार पर्वतों एवं अढ़ाई द्वीप में विद्यमान अन्य जिन-चैत्यालयों की वन्दना करते हैं ।