Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन को विस्तार से धर्मनीति और राजनीति का ज्ञान कराते हैं।'
आदिपुराण में सुलोचना के रूप सौन्दर्य एवं विवाह का संक्षेप में वर्णन है ।' महाकवि भूरामलजी ने अपनी कल्पना के बल से इसका बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है । जिससे शृंगाररस के प्रसंग में वृद्धि हो गयी है ।
आदिपुराण में महेन्द्रदत्त कंचुकी राजकुमारी सुलोचना को स्वयंवर सभा में आये राजकुमारों से परिचय कराता है। जयोदय के कवि ने यह कार्य स्वर्ग से आयी बुद्धिदेवी से कराया है, जो कवि की मौलिक कल्पना है । इससे राजकुमारी के गुणों का साहित्यिक भाषा में अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण वर्णन संगत हो गया है। अन्तःपुर की सेवा में लगे एक बूढ़े ब्राह्मण में ऐसी विद्वता संगत नहीं होती । दूसरे विवाह के प्रसंग में एक नारी की मार्गदर्शिका नारी को ही बनाये जाने से प्रसंग में शालीनता आ गई है।
आदिपुराण में जयकुमार के वैराग्य-चिन्तन का संक्षेप में वर्णन है । जयोदयकार ने इस वैराग्य का वर्णन एक सर्ग में किया है, जिससे काव्य में शान्त-रस की ऐसी सुधाधारा प्रवाहित हुई है, जो मम्मट के “सधः परनिवृत्तये" काव्य प्रयोजन को साकार करती है ।
इस प्रकार कवि ने मूल कथा में आवश्यक परिवर्तन कर काव्य को रसात्मक बनाने का पूर्ण प्रयास किया है। जयोदय का महाकाव्यत्व
जयोदय एक महाकाव्य है । भामह, दण्डी, विश्वनाथ आदि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्य के जो लक्षण बतलाये हैं वे इसमें अक्षरशः प्राप्त होते हैं । यह उसके निम्न स्वरूप से स्पष्ट हो जाता है .
जयोदय महाकाव्य की कथा अट्ठाईस सर्गों में विभक्त है । काव्य के प्रारम्भ में कवि ने जिनेन्द्र वन्दना द्वारा नमस्कारात्मक मंगलाचरण किया है।
१. जयोदय, २/१ - १३७ २. आदिपुराण, भाग - २, ४३/१३७-३३७ ३. जयोदय, ३/३०-११६, सर्ग - ५,६,९,१०,११,१२ ४. आदिपुराण, भाग २, ४३ / ३०१ -३०८ ५. जयोदय, ६/६ - ११८ ६. वही, सर्ग-२५ ७. (अ) काव्यालंकार : भामह, १/१९-२३ (ब) काव्यादर्श : दण्डी, १/१४-२२ ८. जयोदय, १/१