Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन सिंहपुर नगर के सौन्दर्य से आकर्षित होकर एवं सत्यघोष की सत्यवादिता से प्रभावित होकर भद्रमित्र सपरिवार वहीं रहने का निश्चय करता है । वह सत्यघोष के समीप सात रल धरोहर के रूप में रख कर माता-पिता को लेने जाता है । वापिस आकर वह सत्यघोष से अपने रत्न माँगता है । पर सत्यघोष उसे पहचानने एवं रत्न दिये जाने की बात अस्वीकार करता है । भद्रमित्र अपनी बात को प्रमाणित करने का प्रयास करता है पर असफल होता है । राज दरबार में भी उसे न्याय नहीं मिल पाता ।
न्याय न मिलने से निराश भद्रमित्र प्रतिदिन सबेरे एक वृक्ष पर चढ़कर सत्यघोष की झूठी कीर्ति की निन्दा करता एवं उसकी प्रतिष्ठा नष्ट होने का शाप देता है । भद्रमित्र के प्रतिदिन के विलाप को सुनकर एक दिन रानी रामदत्ता, राजा से कहती है - यह पुरुष प्रतिदिन सत्यघोष की निन्दा करता है, इसमें कुछ रहस्य अवश्य है, जिसे मैं ज्ञात करूँगी । संयोग से तभी श्रीभूति मन्त्री वहाँ आता है । रानी उसके साथ शतरंज खेलती है तथा शीघ्र ही पराजित कर उसके गले का चाकू, यज्ञोपवीत एवं मुद्रिका जीत लेती है । अब रानी दासी को ये तीनों वस्तुयें देकर उसे सत्यघोष के घर से परदेशी के रत्न लाने का आदेश देती है । चतुर दासी इन वस्तुओं के प्रमाण द्वारा भद्रमित्र के रत्नों की पिटारी लाकर रानी को सौंप देती है।
रानी वे रत्न राजा को दे देती है । राजा उनमें अन्य रत्न मिला देता है और भद्रमित्र से कहता है कि तुम इनमें से अपने रल ले लो । भद्रमित्र उनमें से अपने रत्नों को उठा लेता है । राजा उसकी सत्य-निष्ठा से प्रभावित हो राजश्रेष्ठी पद से सम्मानित करता है। सत्यघोष को मन्त्री पद से हटा कर कठोर दण्ड देते हैं । अपमानित होने के कारण सत्यघोष आर्तध्यान से मर कर राजा के खजाने में सर्प बनता है ।
भद्रमित्र के परिणामों से निर्मलता बढ़ती है । वह अपनी सम्पत्ति का अधिकांश भाग दान कर देता है । उसकी लोभी माँ के रोकने पर भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं आता। पुत्र की दानशीलता से रुष्ट माता की आर्तध्यान पूर्वक मृत्यु हो जाती है और वह व्याघ्री का जन्म धारण करती है । एक दिन वह अपने पूर्व जन्म के पुत्र भद्रमित्र का ही भक्षण कर लेती है । शान्तपरिणामी भद्रमित्र ही राजा सिंहसेन एवं रानी रामदत्ता के यहाँ सिंहचन्द्र पुत्र के रूप में जन्म लेता है । उसका पूर्णचन्द्र नामक अनुज था ।
राजा सिंहसेन की मृत्यु के अनन्तर रानी आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लेती है । कुछ समय बाद पूर्णविधु मुनिवर का सत्समागम मिलने पर सिंहचन्द्र मुनिव्रत धारण करते हैं । वे