Book Title: Jayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Author(s): Aradhana Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
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जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन स्वयं का खर्च चलता थे । पं० श्री कैलाशचन्द्र जी शास्त्री के अनुसार इस महाविद्यालय के ७० वर्ष के इतिहास में ऐसी दूसरी मिसाल देखने या सुनने को नहीं मिली ।' कार्य क्षेत्र __अध्ययन समाप्त कर पण्डित भूरामल जी शास्त्री अपने जन्मस्थल राणौली लौट आये । अब उनके समक्ष कार्य क्षेत्र के चुनाव की समस्या थी । उस समय घर की आर्थिक स्थित ठीक न थी और अन्य विद्वान् महाविद्यालय से निकलते ही सवैतनिक सेवा स्वीकार कर रहे थे । तथापि उनको सवैतनिक अध्यापन कार्य करना उचित प्रतीत नहीं हुआ । अतएव वे अपने ग्राम में रह कर ही व्यवसाय द्वारा आजीविका अर्जित करते हुए निस्वार्थ भाव से स्थानीय जैन बालकों को शिक्षा प्रदान करने लगे । इसी बीच उनके अग्रज श्री छगनलाल जी भी गया से वापिस आ गये थे । अतः दोनों भाईयों ने मिलकर व्यवसाय प्रारम्भ किया और अनुजों के लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा का उत्तरदायित्व निभाया ।
पण्डित भूरामल जी की व्यावसायिक योग्यता और विद्वत्ता देख कर अनेक लोग विवाह प्रस्ताव लेकर आये । उनके भाईयों तथा सम्बन्धियों ने विवाह करने हेतु बहुत आग्रह किया, किन्तु आपने विवाह करना अस्वीकार कर दिया । क्योंकि आपने अध्ययनकाल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर साहित्य सर्जन एवं प्रचार में ही जीवन व्यतीत करने का संकल्प कर लिया था। साहित्य सृजन की प्रेरणा
श्री भूरामल जी को साहित्य सृजन हेतु प्रेरित करने वाले दो कारण हैं । इनमें प्रथम है जैन वाङ्मर में काव्य और साहित्य की न्यूनता एवं अप्रकाशित होना, और द्वितीय है अध्ययनकाल की एक घटना । घटना इस प्रकार है - बनारस में जब एक दिन भूरामल जी ने एक जैनेतर विद्वान् के समीप पहुँच कर जैन साहित्य का अध्ययन कराने हेतु निवेदन किया तो उन विद्वान् ने व्यंग करते हुए कहा कि “जैनियों के यहाँ है कहाँ ऐसा साहित्य, जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ?" यह सुनकर क्षण भर को भूरामल जी अचेत से हो गये जैसे काठ मार दिया हो किसी ने । शब्द बाण की भाँति पर्दे चीरते हुए हृदय तक पहुँच गये । उस दिन उन्हें मन में बड़ी टीस हुई । मन ही मन खेद करते हुए अपना सा मुँह लेकर वापिस आ गये। उसी समय उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि मैं अध्ययनकाल के उपरान्त ऐसे साहित्य का
१. जयोदय पूर्वार्ध, ग्रन्यकर्ता का परिचय, पृष्ठ - १० २. डॉ. रतनचन्द जैन, आचार्य श्री मानसागरजी का जीवन वृतान्त, कर्तव्यपथ प्रदर्शन, पृष्ठ - ३