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माह तक के अनवरत प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया द्वारा ही पूर्ण किया जा सका है। 'सुनीता' लिखने के बाद तो वे दस वर्ष तक मौन रहे। किन्तु साहित्य का भाग्य था कि जैनेन्द्र फिर से जागे और परिणामस्वरूप 'सुखदा', 'विर्वत', 'मुक्तिबोध' आदि जैसी महत्तम कृतिया उपलब्ध हुई । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनेन्द्र की चिन्तन और लेखन-क्षमता कुण्ठित नही हुई है। उनमे वही जीवतता आज भी बनी हुई है, जो कि उनकी प्रारम्भिक रचनाओ मे दृष्टिगत होती है। 'कल्प' पाक्षिक पत्रिका के द्वारा भी जैनेन्द्र के विचारो के सम्पर्क में आने का सौभाग्य मिल रहा है। अब उनके जीवनदर्शन का अभिनव सस्करण- 'समय, समस्या और सिद्धान्त' के नाम से प्रकाशित होने मे पाया है । इसमे जीवन, सिद्धान्त और जीवन व्यवहार से सम्बन्धित ४५० प्रश्न है, उसमे जीवन के चिरन्तन प्रश्नो के साथ ही आध्यात्मिक और शाश्वत प्रश्नो के समाधान भी प्राप्त होते है । सम-सामयिक राजनीतिक स्थितियो के सस्पर्श के कारण अत्याधुनिक स्थितियो पर भी प्रश्न किए गए है । जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर उपरोक्त अप्रकाशित पुस्तक की जानकारी प्राप्त हुई थी और श्री प्रदीप भाई की कृपा से पुस्तक की टक्ति प्रतियो के अध्ययन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुअा। इस कृपा के लिए मै उनके प्रति अत्यधिक आभारी हू। समयाभाव के कारण मै सूक्ष्मरूप से उसका अध्ययन तो न कर सकी किन्तु जितनी सुविधा उपलब्ध हो सकी उसके अनुसार मै इसी निष्कर्ष पर पहुची हूँ कि 'समय और हम' से 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे भिन्नता है। यह भिन्नता जैनेन्द्र की अभिव्यक्ति-क्षमता में विशेष रूप से दृष्टिगत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि 'समय और हम' मे जो ऋजुता, क्लिष्टता और बौद्विकता के कारण शुष्कता
आ गई थी, जिसके कारण वह कोरा वैचारिक ग्रन्थ प्रतीत होता है, वह अभाव 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे नही रह गया है। प्रस्तुत पुस्तक मे लेखक की हार्दिकता, भाव-स्निग्धता तथा अभिव्यक्तिगत स्पष्टता तथा अनुभूतिगत गहराई पूर्णतया दृष्टिगत होती है।
उपरोक्त वृहद् जीवनदर्शन के अतिरिक्त 'वृत विहार' भी प्रकाशित कृति है, जिसमे जीवन के ज्वलन्त प्रश्नो पर जैनेन्द्र के विचार समाविष्ट है। 'त्यागपत्र' के नायक की अगली कहानी भी 'अनामस्वामी के नाम से 'कल्प' पाक्षिक पत्रिका मे धारावाहिक रूप मे छप रही है। जैनेन्द्र के 'जीवनदर्शन' पर कार्य करते हुए सदैव उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा मन मे बनी रहती थी, किन्तु परिस्थितिवश सौभाग्य नही मिल पाता था । परन्तु जब शोधनिबन्ध लगभग समाप्त हो रहा था, तब उनके दर्शन की आकाक्षा का लोभ सवरण न हो सका और १७ मई की शाम को उनके दर्शन की अभिलाषा पूर्ण