Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 17
________________ व्यक्ति का जीवन परिवेश और सस्कारो की समष्टि है । उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर परम्परागत सस्कारो ओर परिस्थिति का प्रभाव पडना अनिवार्य है। जैनेन्द्र का व्यक्तित्व उनके सस्कारो ओर परिवेश का ही योग हे । उनका जन्म सवत् १९५० मे कोडियागज (अलीगढ) मे हुआ था। जन्म के दो वष बाद ही पिता की मृत्यु हो गई, अत उनका सारा भार मा रमा देवी बाई तथा मामा महात्मा भगवानदीन पर पडा । मामा के द्वारा स्थापित गुरुकुल में ही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई थी । वहा का वातावरण बहुत ही शुद्ध और धार्मिक था । जैनेन्द्र पर इस वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पडा । एक बार तो वे 'बाहुबली' की कथा सुनते-सुनते रो पडे थे। उस समय वे इस कथा से इतने प्रभावित हुए कि प्रागे इसी नाम से एक कहानी भी लिखी । महात्मा भगवानदीन अत्यधिक त्यागी और अपरिग्रही पुरुप थे । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमे 'काश्मीर की यह यात्रा' मे देखने को मिलता है । जैनेन्द्र के साहित्य पर उनके जीवन की घटनाओ तथा मा ओर मामा के सस्कारो का प्रभाव स्पष्टत लक्षित होता है । स्वधर्म (जैनधर्म) के प्रति आस्था तथा ईश्वरीय विश्वास उन्हे अपने सस्कारो से ही प्राप्त हुआ है। जैनेन्द्र के साहित्य-सृजन की ओर उन्मुख होने का कारण स्वेच्छित न होकर आन्तरिक और बाह्य जीवन की विवशता ओर अभाव ही है। बाह्य जीवन की बेकारी और आर्थिक सकट तथा प्रान्तरिक प्रभाव के कारण उनके मन की पीडा अधिकाधिक घनीभूत होती गई। ऐसे मे मन के बोझ को लेखनी द्वारा कागज पर उतारने मे उन्हे चैन मिला । वस्तुत प्रान्तरिक उफान को शान्त करने के प्रयास मे अनायास ही साहित्य-सृजन की यह प्रक्रिया हातान्तर मे उनके लिए अनिवार्य हो गई । समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ की माग तथा रेडियो पर प्रसारित होने वाले उनके धारावाहिक उपन्यासो की माग ने उन्हे लेखन-कार्य के लिए विवश कर दिया । जैनेन्द्र के द्वारा 'अपनी कैफियत' से ज्ञात होता है कि वे कभी भी स्वेच्छा से लिखने के लिए प्रवृत्त नही हो सके है। प्रारम्भिक अवस्था मे कभी-कभी उन्होने (साहित्य-रचना द्वारा) आर्थिक सकट में त्राण पाने के हेतु साहित्य-रचना की और उससे प्राप्त होने वाला ताभ ही उनके साहित्य का श्रेय था, किन्तु बाद के उपन्यास--सुखदा', 'विवर्त', 'अनन्तर', और कहानिया तो मानो उनके सिर चढकर ही लिखवायी गयी है । कहानी और उपन्यास की भाति निबन्धो के क्षेत्र मे भी उनकी यही स्थिति देखी जा सकती है। जब प्रश्नकर्ता कागज-कलम लेकर उनके पीछे पड जाता है तो उन्हे विवश होकर उत्तर देने ही पडते है। इस प्रकार से एक-दो नही अनेको सग्रह तैयार हो गये है। 'समय और हम' जैसे वृहद् दार्शनिक ग्रन्थ को अठारह

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