Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 16
________________ जैनेन्द्र के पूर्ववत साहित्यकारो ने सत्य की अभिव्यक्ति का साहस ही नही किया था, किन्तु जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम मानव आत्मा मे निहित सत्य को स्पष्टरूप से व्यक्त करने का प्रयास किया है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसकी समग्रता में स्वीकार किया है । उसमे यदि देवत्व है तो दानवत्व भी है । एक के निषेध मोर दुसरे की स्वीकृति से व्यक्तित्व मे पूर्णता नही प्रा सकती । सृष्टि के मूल स्तम्भ 'स्त्री-पुरुष' की समस्या को उठाकर जैनेन्द्र ने साहित्य जगत् में एक नवीन किन्तु शाश्वत सत्य का उद्घाटन किया है । इनकी दृष्टि मे व्यक्ति की समस्त क्रियाश्रो का उत्स 'ग्रह' है । 'ग्रह' विसर्जन ही उनके साहित्य का मूल स्वर है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त काम भावना फ्रायड की मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से पृथक् है । जैनेन्द्र अचेतन मन को 'दमित वासना' का पुजन मानकर 'भगवत्ता' का केन्द्र मानते है । उनके पात्र भोग से योग की ओर उन्मुख होते हुए दृष्टिगत होते है । जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य 'विसर्जन' और 'ऐक्य' मे ही प्रन्तर्भूत है । सम्पूर्ण साहित्य इन्ही दो आधार - बिन्दुओ को लेकर चरितार्थ हुआ है । प्राध्यात्मिक स्तर पर ग्रह अर्थात् प्रश का ब्रह्म प्रर्थात् पूर्ण के समक्ष विसर्जित होना तथा सान्निध्य स्थापित करना ही उनके साहित्य का लक्ष्य हे । द्वेत लोकिक सत्य है, द्वैत अन्तिम सत्य है । मानव जीवन का उद्देश्य द्वैत से प्रद्वैन की प्रोर उन्मुख होना है । जैनेन्द्र ने जीवन की चिरन्तन समस्याओ के प्रतिरिक्त शाश्वत सत्यो पर भी प्रकाश डाला है । ईश्वर, ग्रात्मा, जन्म, मृत्यु, भाग्य, पुनर्जन्म आदि भी उनकी चर्चा और चिन्तन के विषय रहे हे । जैनेन्द्र की प्रास्तिकता सत्य अर्थात् ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्ध करने में असमर्थ है । जैनेन्द्र ने बाह्य जीवन की परिस्थितियो और द्वन्द्वो का भी अपने साहित्य मे चित्रण किया है । उनकी दृष्टि में द्वन्द्व का कारण बाह्य परिवेश मे न होकर अन्तर्मन में ही स्थित होता है । जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन का विवेचन करते हुए उनकी कहानियों और उपन्यासो के साथ ही निबन्धो द्वारा भी उनके विचारो की पुष्टि का प्रयास किया गया है । उनके सैद्धान्तिक विवेचन का क्षेत्र इतना वृहत् है कि उसे छोडकर उनके चिन्तन का पूर्ण परिचय प्राप्त करना असम्भव है । जैनेन्द्र के साहित्य मे जहा कही विचारगत विरोधाभास दृष्टिगत होता है, वह उनके निबन्धो के द्वारा सहज ही स्पष्ट हो जाता है। अतएव जैनेन्द्र के विचारो की सत्यता को जानने के लिए उनके उपन्यास और कहानियो के साथ ही साथ उनके निबन्धो तथा प्रश्नोत्तर रूप मे संग्रहीत विचारो को भी जानना अनिवार्य है ।

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