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निषेध करता हुआ अपने साथ छल करता रहा है । 'चाहिए' से याद है, किन्तु 'क्या हे' से यथार्थता के दर्शन होते हे । गानव स्वभाव हे कि वह पनी सच्चाई को पूर्णत उद्घाटित नही करना चाहता ।
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ठता
जेनेन्द्र का साहित्य व्यक्ति के छत और मिथ्यावाद का साफा कर देता हे । व्यक्ति को भरे समाज मे उधार कर बठा कर देता है। वह सच्चाई को मन ही मन स्वीकार करता हुआ भी स्पष्ट गन्दी म स्वीकार करने का साहस नही कर पाता । अपने पन्त साहित्य की भूमि मे प्रकट हुआ देखकर वह लेखक के प्रति उत् हे । 'खिसियानी बिल्ली की भाति तिलमिलाया हुआ मावोचक लेखकही लाछित करते लगता है । इस प्रकार साहित्यकार के पति सच्चा न्याय नही हो पाता । जब तक साहित्य मे अभिव्यक्त सत्यता को अपने जीवन से पागसात् करके नही देखा जाता, तब तक उसके सम्बन्ध में सही निर्णय सव नही हो सकता ।
प्रेमचन्द के बाद साहित्य जगत् में जैनेन्द्र के पदार्पण करत ही हा चल - सी मच जाती है । जैनेन्द्र साहित्य जगत् में एक तूफान के सालो हुए। जैनेन्द्र ने जान बूझकर प्रेमचन्द की मान्यताओ का समा नही किया। साहित्य में उनका प्रवेश सहज रूप ग ही हुआ था तथापि उसकी off । यास्वरूप साहित्य जगत् एक नवीन भाव-धारा का गवार हा । नेन्द्र द्वारा ग्रहीत नवीनता यदि वैचारिक ही होती तो सम्भवत उसे शब्दो के मान्यम स समने मे सुविधा हो सकती थी किन्तु उन्होने पती भावाभिव्यक्ति से टेढे-मेढे मार्गों से की है कि वह सामान्य साहित्य पनि के लिए दूर प्रतीत होती है । उनके शब्द सूचक मान है । भाव शब्दो से पार है। किन्तु गाग की कठिनाई से घबड़ाकर गन्तव्य को निरर्थक नहीं माना जा सकता । यी यह सत्य है कि जैनेन्द्र की दार्शनिकता ने एक और यदि विषय को रूह बनाया है तो मनोविज्ञान की सकरी गली में वह प्रस्पष्ट भी हो गया है । शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध से भी जैनेन्द्र इतने मितव्ययी है कि प्राय कुछ प्रशखकर शेप के लिए इत्यादि से ही काम चला लेते है और भावो की स्थिति तो
वे प्राय मौन ही हो जाते है । पाठक बेचारा सिर बार-बार समझने की चेष्टा करते हुए भी पाय सफल ही रहता है | किन्तु जिसे हम जैनेन्द्र के साहित्य की जटिलता समभते हैं, वह हमारी अपनी ही समता है । हम राजमार्ग पर चलने के इतने अस्त हो गए मार्गों पर चलना हमे अच्छा नही लगता किन्तु गार्ग की जटिलता के कारण साहित्य में भूत सत्य रूप गन्तव्य का निषेध नही किया जा सकता ।
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पीट कर रह जाता है।
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