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देता है, उसी प्रकार योग दु:खों का विध्वंस कर डालता है । योग मृत्यु की भी मृत्यु है । अर्थात् योगी कभी मरता नहीं । क्योंकि योग आत्मा को मोक्ष से योजित करता है। मुक्त हो जाने पर आत्मा का सदा के लिए जन्म-मरण से छुटकारा हो जाता है।
योगरूपी कवच से जब चित्त ढका होता है तो काम के तीक्ष्ण अस्त्र, जो तप को भी छिन्न-भिन्न कर डालते हैं, कुण्ठित हो जाते हैं-योगरूपी कवच से टकराकर वे शक्तिशून्य तथा निष्प्रभाव हो जाते हैं ।
योगसिद्ध महापुरुषों ने कहा है कि यथाविधि सुने हुए-आत्मसात् किये हुए 'योग' रूप दो अक्षर सुनने वाले के पापों का क्षय-विध्वंस कर डालते हैं।
___ अशुद्ध-खादमिश्रित स्वर्ण अग्नि के योग से- आग में गलाने से जैसे शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार अविद्या-अज्ञान द्वारा मलिन--दूषित या कलुषित आत्मा योगरूपी अग्नि से शुद्ध हो जाती है।
__ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन तथा जैनदर्शन में जैनयोग मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है । जैनयोग के सन्दर्भ में मैंने उन सभी ग्रन्थों का पारायण किया है, जो मुझे उपलब्ध हो सके । मैं इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र से अत्यधिक प्रभावित हूँ । उन्होंने जो भी लिखा है, वह मौलिक है, गहन अध्ययन, चिन्तन पर आधृत है।
___ पिछले कुछ वर्षों से मेरे मन में यह भाव था कि आचार्य हरिभद्र के इन चारों योग ग्रन्थों पर मैं कार्य करू । हिन्दी-जगत् को अधुनातन शैली में सुसम्पादित तथा अनूदित रूप में ये ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं । अच्छा हो, इस कमी की पूर्ति हो सके । इसके लिए मुझे उत्तम मार्ग-दर्शन तथा संयोजन चाहिए था। किसके समक्ष यह प्रस्ताव रखू, यह सूझ नहीं पड़ रहा था । क्योंकि आज अध्यात्म तथा योग के नाम पर जो कार्य चल रहे हैं, वे यथार्थमूलक कम तथा प्रशस्ति एवं प्रचारमूलक अधिक हैं। उन तथाकथित योग-प्रवर्तकों को, आचार्यों को अपना-अपना नाम चाहिए, विश्रुति चाहिए, प्रचार चाहिए, जो उनके लिए प्राथमिक है। खैर, जैसी भी स्थिति है, कौन क्या कर
१ योगः कल्पतरुः श्रेष्ठो योगश्चिन्तामणिः परः । योगः प्रधानं धर्माणां योगः सिद्धः स्वयं ग्रहः ।। तथा च जन्मबीजाग्निर्जरसोऽपि जरा परा। दुःखानां राजयक्ष्माऽयं मृत्योमत्युरुदाहृतः ।। कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि मन्मथास्त्राणि सर्वथा। योगवर्मावृते चित्ते तपश्छिद्रकराण्यपि ।। अक्षरद्वयमप्येतत् श्रूयमाणं विधानतः । गीतं पापक्षयायोच्चर्योगसिद्धमहात्मभिः ।। मलिनस्य यथा हेम्नो वह्न: शुद्धिनियोगतः । योगाग्नेश्चेतसस्तद्वदविद्या मलिनात्मनः ।।
-योगबिन्दु ३६--४१
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