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इस सन्दर्भ में हमारा चिन्तन है कि जैन, बौद्ध तथा वैदिक परम्पराओं के उन तत्त्व-द्रष्टाओं का वह साहित्य समीक्षा, अनुसन्धान तथा वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ प्रकाश में आए, जिससे जिज्ञासुओं को योग के सन्दर्भ में सही दिशा प्राप्त हो सके । जैसा पहले संकेत किया गया है, योग साम्प्रदायिक प्राचीरों से सर्वथा मुक्त है । यहाँ जो बौद्ध, वैदिक एवं जैन प्रभृति नामों का उल्लेख हुआ है, वह परम्परा - विशेष की ऐतिहासिकता के सूचन के दृष्टिकोण से है ।
सामाजिक स्थितियों की शृंखलाएँ कुछ इस प्रकार की रही हैं कि हम न चाहते हुए भी साम्प्रदायिक बन जाते हैं । फलतः जिस परम्परा से हम सम्बद्ध होते हैं, उसके अतिरिक्त इतर परम्परा के उच्चकोटि के महापुरुष तथा उन द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण उपयोगी साहित्य को अधीत और अधिगत करने की हमारे मन में ही नहीं आती अन्यथा योग वाङ् मय पर एक अद्भुत और अभिनव चिन्तन देने वाले आचार्य हरिभद्रसूरि आदि मनीषी योग जगत् के लिए क्या इतने अज्ञात या अल्प ज्ञात रह पाते, जितने आज वे हैं । इतना ही क्यों आचार्य हरिभद्र जिस परम्परा के थे, आज उस परम्परा के लोग भी उनको अधिकांशतः यथार्थ रूप में नहीं जानते क्योंकि प्रायः हम बहिष्टा हो गये हैं, जो योग के अनुसार हमारी अधस्तन दशा है । योग तो अपने विस्मृत स्वरूप को स्वायत्त कर लेने की दिव्य यात्रा का प्रशस्त पथ है जिसे यथावत् रूप से समझने और अनुसृत करने का अर्थ है जीवन में उस शान्ति का प्रादुर्भाव, जिसके लिए क्या धनी, क्या लालायित हैं ।
सत्ताधीश,
क्या जनसाधारण --- सब
मैं भारतीय दर्शन, वाङ् मय तथा प्राच्य भाषाओं का अध्येता रहा हूँ । इनके परिशीलन, मनन तथा अनुसन्धान में जीवन का दीर्घकाल मैंने लगाया है, जिसे मैं अपने जीवन की आंशिक ही सही, सार्थकता मानता हूँ । अपने अध्ययन, अन्वेषण के सन्दर्भ में जब मैं उद्भट मनीषी, महान् ग्रन्थकार स्वनामधन्य आचार्य श्री हरिभद्र सूरि के ज्ञान-विज्ञानोद्भासित व्यक्तित्व के संपर्क में आया, इस महान् सरस्वती-पुत्र से अत्यधिक प्रभावित हुआ। यह कहना अतिरंजित नहीं होगा कि आर्हत परम्परा में आचार्य हरिभद्र एक ऐसे जीवन-वैभव को लेकर उद्भासित हुए, जो अनेक दृष्टियों से अनुपम था, अद्भुत था । भारतवर्ष की विभिन्न दार्शनिक परम्पराओं को निकट से देखने, परखने, समझने का सौभाग्य उन्हें विशेषरूप से प्राप्त हुआ । वैदिक परम्परा के ब्राह्मण कुल में उनका जन्म हुआ था । चित्रकूट या चितौड़ के राजपुरोहित के पद पर वे आसीन रहे । वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण, व्याकरण, न्याय आदि अनेक विषयों के वे पारगामी विद्वान थे । प्रगाढ़ विद्वत्ता के साथ-साथ सरल, निष्कपट और निर्दम्भ व्यक्तित्व के वे धनी थे । एक विशेष घटना के सन्दर्भ में उन्हें जैन धर्म के सम्पर्क में आने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिसने उन महान् प्रज्ञा-पुरुष का जीवन ही बदल दिया । उनकी आस्था जैन दर्शन और धर्म के साथ सम्पृक्त हो गई । जब ज्ञान
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