Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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अनुभूति की प्रभात
विधि-विधान एक अथाह एवं असीम महासागर है। धर्म-कर्म की विविध नदियाँ एवं उपनदियाँ इसमें समाहित हो जाती है। किसी अपेक्षा से भिन्न रूप प्रतिभासित होने वाली समस्त धाराएँ यहाँ एक रूप हो जाती है।
विधि-विधान का अभिप्रेत पूजा, प्रतिक्रमण, प्रतिष्ठा आदि आयोजन मात्र नहीं है। यह जीवन जीने की कला अर्थात Art of Living है। केवल वैयक्तिक जगत पर ही नहीं अपितु सामाजिक, आध्यात्मिक, शारीरिक आदि विविध स्तरों पर इसका अप्रतिम प्रभाव परिलक्षित होता है।
आगम वाणी को आचरण में रूपान्तरित करने के लिए यह एक विशिष्ट प्रयोग है। विधि-विधान का एक अर्थ जिनवाणी की क्रियान्विति ही है। इसी के माध्यम से मानव अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। जिस तरह किसी भी विषय का गूढ़ अध्ययन करना हो तो उसे आयु, कक्षा, समय सीमा आदि की अपेक्षा से वर्गीकृत किया जाता है उसी तरह आगम सम्मत विधि-विधानों को भी अनेक अपेक्षाओं से वर्गीकृत किया जा सकता है।
जैन परम्परा में कुछ विधान श्रावक वर्ग के लिए है तो कुछ मात्र श्रमण वर्ग के लिए। कई ऐसे विधान हैं जिनमें दोनों का सहयोग उपेक्षित है तो कुछ दोनों के लिए अवश्य करणीय। यद्यपि समस्त क्रिया विधानों का उद्देश्य व्यक्ति को स्व स्वरूप के निकट ले जाना है। उसे निज में स्थापित कर जिनत्व की प्राप्ति करवाना है। . मुझे विधि ग्रन्थों का अध्ययन करते हुए तत्सम्बन्धी एक बृहद् स्वरूप उपस्थित हआ। उसी वजह से लघु रूप में प्रारंभ हुए शोध कार्य ने इतना विस्तृत रूप धारण कर लिया। प्रस्तुत शोध सारांशिका में उसके अपने नाम के अनुसार आलोडित किए गए विषयों का संक्षिप्त एवं सारभूत वर्णन किया गया है। इसके माध्यम से जिज्ञासु वर्ग विधि-विधान के बृहद स्वरूप से परिचित तो होगा ही, साथ ही उन विषयों को जानने हेतु रुचि भी जागृत होगी।