Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 137
________________ ...83 शोध प्रबन्ध सार इसी क्रम में योगोद्वहन योग्य वसति, क्षेत्र, उपकरण, काल, शुभ मुहूर्त्त निर्देश एवं सूचनाएँ दी गई है। इसी के साथ आगम अध्ययन सम्बन्धी अनेक शास्त्रीय पक्षों एवं विधि-नियमों का विश्लेषण करते हुए वर्तमान समय में इसकी उपयोगिता विषयक तथ्यों का उद्घाटन किया है। पाँचवें अध्याय में योगोद्वहन सम्बन्धी मुख्य विविध विधियों का प्राचीन एवं प्रचलित स्वरूप बताया है। कार्य सम्पादन विधि किसी भी क्रिया का प्रमुख अंग होती है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए योगोद्वहन के समुचित सम्पादन में सहयोगी विधियों का विवेचन किया है। यहाँ पर क्रमशः योग प्रवेश विधि, योग नन्दि विधि, उद्देश सम्बन्धी विधियाँ, कालग्रहण विधि, काल नाश विधि, दांडीधर विधि, स्वाध्याय प्रस्थापना विधि, नोंतरा विधि, पाली पलटने की विधि आदि अनेक विधियों का सुविस्तृत वर्णन किया है। इसकी सहायता से योगोद्वहन सम्बन्धी सूक्ष्म विधियों का उपयोगी परिचय हो पाएगा। इस खंड को आगे बढ़ाते हुए षष्ठम अध्याय में योग तप अर्थात आगम अध्ययन की शास्त्रीय विधि प्रस्तुत की है । आगम सूत्रों का अध्ययन करते समय किस आगम के अध्ययन के लिए कौनसा तप करना चाहिए तथा त्रियोग की पवित्रता रखने हेतु वंदन,कायोत्सर्ग आदि कितनी संख्या में करना चाहिए यह योगोद्वहन का मुख्य पक्ष है। छठें अध्याय में आचारांग आदि ग्यारह अंगसूत्र, बारह उपांगसूत्र, छहछेद सूत्र, चार मूलसूत्र, प्रकीर्णकसूत्र ऐसे लगभग पैंतालीस आगमों के अध्ययन की तप विधि बतलाई है। इसी के साथ योगवाहियों की सुगमता के लिए तप यन्त्र भी दिया गया है। इस खंड के अंतिम अध्याय में कल्पत्रेप विधि का सामाचारीगत अध्ययन किया है। कल्पत्रेप योगवाही मुनियों का आवश्यक अनुष्ठान है । इसकी महत्ता को दर्शाते हुए विधिमार्गप्रपा में कहा गया है - ' जोगाय कप्पतिप्पं विणा न वहिज्जंति' अर्थात कल्पत्रेप के बिना आगम सूत्रों का योग वहन नहीं किया जाता। जिस क्रिया विशेष के द्वारा बाह्य शुद्धिपूर्वक दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप की शुद्धि होती है वह कल्पत्रेप है। अर्जित आगम ज्ञान की यथार्थ फलश्रुति पाने

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