Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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128... शोध प्रबन्ध सार
जिनपूजा को सर्वश्रेष्ठ आलम्बन सिद्ध करने का प्रयास किया है। तत्पश्चात प्राचीन एवं अर्वाचीन साहित्य में जिनपूजा का प्रमाण देते हुए सर्वप्रथम आगम साहित्य में उपलब्ध जिनपूजा के साक्ष्यों का उल्लेख किया है। इसके बाद मध्यकालीन एवं परवर्तीकालीन जिनपूजा विषयक रचनाओं का वर्णन करते हुए जिनपूजा विषयक कुछ ऐतिहासिक तथ्य एवं मूर्तिकला के गौरवपूर्ण इतिहास का वर्णन किया है। यह अध्याय जिनपूजा की सार्वकालिक महत्ता को सिद्ध करता है।
नवम अध्याय में सात क्षेत्र विषयक विविध पक्षों का समीक्षात्मक अनुशीलन किया गया है।
जैन दर्शन में श्रावक को अपने अर्थ का सद्व्यय करने हेतु सात क्षेत्र मुख्य रूप से बताए गए हैं। इन सात क्षेत्रों का एकत्रित द्रव्य चार क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जाता है। कई बार प्रश्न होता है कि इन सात क्षेत्रों की विशेषता क्या है ? इन्हें इतना महत्त्व क्यों दिया गया है ? किस क्षेत्र की राशि कहाँ प्रयोग करें ? आदि अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं।
प्रस्तुत अध्याय में उन सभी प्रश्नों का समाधान करते हुए विविध आचार्यों के तद्विषयक मत को प्रस्तुत किया है।
इस कृति का दशम अध्याय जिज्ञासु वर्ग के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आज जिनपूजा एवं जिनमन्दिर विषयक अनेक प्रकार के प्रश्न युवा वर्ग द्वारा किए जाते हैं। कई बार कई गलत भ्रान्तियाँ भी मस्तिष्क में प्रस्थापित हो जाती है जो हमें निपूजा से दूर कर रही है ।
प्रस्तुत अध्याय में इसी प्रकार के प्रश्नों को उठाते हुए वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका समाधान प्रस्तुत किया है। जैसे अधिष्ठायक देवों की देहरी मन्दिर में बनाना या नहीं ? निर्माल्य द्रव्य का क्या करना चाहिए? परमात्मा के समक्ष गुरुवंदन कर सकते हैं या नहीं? त्रिकाल दर्शन की आवश्यकता क्यों ? जिनमंदिर में कैसे वस्त्र पहनकर जाना आदि अनेक प्रासंगिक विषयों का वर्णन किया है।
इस कृति का अन्तिम अध्याय जिनपूजा सम्बन्धी विषयों की विविध पक्षीय तुलना एवं सारांश से सम्बन्धित है। इसमें जिनपूजा का ऐतिहासिक अनुशीलन करते हुए आगम काल से अब तक आए परिवर्तनों के परिणाम बताए हैं तथा वर्तमान में जिनपूजा की आवश्यकता को सुसिद्ध किया है।