Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...
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इन परिस्थितियों में आज इस अपूर्व विधान का सही स्वरूप जन सामान्य में प्रस्तुत करना जरूरी है । प्रतिष्ठा विधान के अन्तर्गत प्रायः हर विधान का समावेश हो जाता है अतः इस विधान की सम्यक साधना अत्यावश्यक है। प्रतिष्ठाचार्य, विधि-विधान, विधिकारक आदि की सात्विकता प्रतिष्ठा विधान का महत्त्वपूर्ण अंग है। इसी के साथ विविध रूप में आयोजित होने वाले विधिविधानों को एक सम्यक दिशा निर्देश देना अत्यावश्यक है।
शास्त्रोक्त वर्णन के अनुसार प्रतिष्ठा विधान करवाने का अधिकार मात्र आचार्यों को है। परन्तु वर्तमान में अंजनशलाका की हुई प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा साधु-साध्वी भी करवाते हैं। उसमें भी मुख्य स्थान विधिकारकों का ही होता है । वर्तमान में साधु-साध्वी न हो तो प्रतिष्ठा हो सकती है किन्तु विधिकारक का होना नितांत जरूरी है ।
प्रतिष्ठा के समय नगरवासियों के क्या कर्तव्य होते हैं? प्रतिष्ठा संचालक मंडल को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ? किस विधि को किस रूप में किन भावों द्वारा सम्पन्न करना चाहिए ? आदि अनेक पक्ष ज्ञातव्य हैं। प्रतिष्ठा जैसे महामंगलकारी विधान का सही स्वरूप जानकर ही आम जनता धर्म कर्म से अन्तःकरणपूर्वक जुड़ सकती है, युवा वर्ग की भ्रान्तियाँ समाप्त हो सकती है। अत: इस बृहद् विधान के कुछ पक्षों को उद्घाटित करने का प्रयास यहाँ कर रहे हैं।
प्रतिष्ठा अनुष्ठान के विविध पक्षों से परिचित करवाने हेतु इस अध्याय को सोलह अध्यायों में विभाजित किया है।
प्रथम अध्याय में प्रतिष्ठा के शास्त्रोक्त अर्थ, उनके अभिप्राय एवं उनमें अन्तर्भूत रहस्यों को उजागर किया है।
सामान्यतया प्रतिष्ठा का अर्थ जिनबिम्ब में प्राणों का आरोपण समझा जाता है। कहीं-कहीं तो यह भी मान्यता है कि भगवान को स्वर्ग से बुलाकर मूर्ति में प्रतिष्ठित किया जाता है। जबकि वस्तुतः तो जिनबिम्ब में प्रतिष्ठाकारक आचार्य आदि के शुभ भावों का आरोपण किया जाता है। ऐसी ही जैन प्रचलित कई भ्रान्त मान्यताओं का निराकरण करने का प्रयास इस अध्याय में किया गया है।
दूसरे अध्याय में प्रतिष्ठा विधान के मुख्य अधिकारियों की चर्चा शास्त्रानुसार की गई है।