Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 213
________________ शोध प्रबन्ध सार ... 159 यदि जैन विचारणा से चिंतन करें तो भगवान ऋषभदेव ने भरत खंड में कर्म युग का प्रारंभ करते हुए विविध कलाओं का शिक्षण दिया उसी में से एक नाट्य कला भी थी। संभवत: नाट्यकला का संबंध भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती से भी हो सकता है। अतः विविध परम्पराओं में प्राप्त मुद्राओं में सर्वप्रथम नाट्य मुद्राओं का उल्लेख किया है। इस विषय पर शोध करने की आवश्यकता एवं उपादेयता के सम्बन्ध में पूर्व ही चर्चा कर चुके हैं। यह शोध खण्ड सात अध्यायों में उपविभाजित है। इस खण्ड में भरत के नाट्यशास्त्र आदि ग्रन्थों में प्राप्त मुद्राओं का अनुशीलन किया गया है। प्रथम अध्याय में मुद्रा के विभिन्न प्रभावों का प्रतिपादन किया है। मुद्रा एक ऐसी योग पद्धति है जिसके माध्यम से प्राचीन साधकों एवं दार्शनिकों की अनुभूति से संप्राप्त बोध एवं साधना पद्धति को आधुनिक तथा वैज्ञानिक संदर्भों में प्रतिपादित किया जा सकता है। इस प्राच्य विद्या का प्रयोग वर्तमान में एक नई दिशा प्रदान कर सकता है। आज सम्पूर्ण विश्व में विविध परिप्रेक्ष्यों में उभर रही समस्याओं का समाधान इस एक विद्या के द्वारा हो सकता है। मुद्रा साधना हमारे दैनन्दिन प्रयोग की विधि है इसका नियमित विधिवत उपयोग विभिन्न क्षेत्रों में लाभ प्रदान कर सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत अध्याय में मुद्राओं से प्रभावित सप्त चक्रादि के विशिष्ट प्रभावों की चर्चा की है। इसके अन्तर्गत सप्त चक्र, अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ, चैतन्य केन्द्र एवं पंच तत्त्व आदि को मुद्रा प्रयोग द्वारा किस प्रकार सक्रिय एवं संतुलित किया जा सकता है ? हमारे शरीर को यह किस रूप में प्रभावित करते हैं? एवं मुद्रा प्रयोग द्वारा इनमें क्या परिवर्तन लाए जा सकते हैं? आदि का मौलिक एवं विशेषज्ञों द्वारा ज्ञापित सार स्वरूप प्रस्तुत किया है। अध्याय के अन्त में मुद्रा प्रयोग को सरल एवं सुपरिणामयुक्त बनाने के लिए मुद्रा प्रयोग के नियम - उपनियम एवं आवश्यक जानकारी का भी विवेचन किया है। यह अध्याय मुद्रा प्रयोग में हमारी जागृति एवं अभिरूचि बढ़ाते हुए मुद्रा विज्ञान की अक्षुण्णता में सहायभूत बने यह आन्तरिक प्रयास किया है।

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