Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 227
________________ शोध प्रबन्ध सार ...173 प्रचलित मुद्राओं का विवेचन एवं मानसिक शांति में उसके अवदान पर चर्चा की गई है। योग शब्द अति प्राचीन काल से जैन आगमों एवं वैदिक संहिता ग्रंथों में प्रयुक्त मिलता है। अधिकांश संदर्भो में इसका तात्पर्य सम्भवतः दो बातों की एकता या संयोग से है। ऋग्वेद में योग सम्भवतः ध्यान और समाधि के समय व्यक्ति के परम सत्ता रूप संयोग का द्योतक है। कठोपनिषद में पाँच इन्द्रियों के साथ संयुक्त मन और बुद्धि की स्थिरता को योग कहा गया है। श्वेताश्वतर उपनिषद में योगाभ्यास हेतु एकान्त और शान्त स्थल को प्रमुखता दी गई है। योग साधना में मुद्रा, आसन, प्राणायाम आदि साधनाओं का विशेष महत्त्व रहा हुआ है। हठयोग, योग परम्परा की एक शाखा है जिसमें आसन एवं मुद्रा साधना का विशिष्ट मूल्य रहा हुआ है। घेरण्ड संहिता, शिव संहिता, हठयोग प्रदीपिका आदि अनेक ग्रथों में योग सम्बन्धी अनेक मुद्राओं का वर्णन है। स्थूल परिशीलन करने पर हठयोग सम्बन्धी मुद्राएँ प्रारंभ में अस्वाभाविक सी प्रतीत होती है। क्योंकि वर्तमान में हमारा जीवन योग की साधारण स्थिति से बहुत दूर हो चुका है। शरीर और मन को शान्त करके वृत्तियों को बाहर से अन्दर की ओर मोड़ने के लिए कठोर अनुशासन की परम आवश्यकता है। इन कठोर मुद्राओं की निरन्तर साधना से देह और मन शान्त होता है तथा बहिर्मुखी शक्तियाँ अन्तर्मुखी होकर साधक को योग की उच्चतम स्थिति तक पहुँचाने में सक्षम होती हैं। __योग साधना प्रधान मुद्राओं का विवेचन करते हुए इस खण्ड को पाँच अध्यायों में विभाजित किया है। प्रथम अध्याय में चक्र, केन्द्र, तत्त्व आदि के संतुलन-असंतुलन से होने " वाले परिणामों की चर्चा की गई है। द्वितीय अध्याय में सामान्य अभ्यास द्वारा सुसाध्य यौगिक मुद्राओं के स्वरूप एवं उनके महत्त्वपूर्ण प्रभावों का विश्लेषण किया है। योग साधना एक कठिन साधना है। प्रारंभ में ही कठिनता का सामना होने पर नूतन साधकों के विचलित होने अथवा साधना छोड़ने की संभावना अधिक रहती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर प्रथम अध्याय में अल्प अभ्यास या सहज रूप से साध्य मुद्राओं का विवेचन किया गया है।

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