Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...163
__ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्रा विधि नामक दो रचनाएँ स्वतंत्र रूप से मद्रा प्रयोग पर ही रचित प्राप्त हुई है। वर्तमान में प्रेक्षाध्यान आदि के अन्तर्गत कुछ नूतन मुद्राओं का वर्णन प्राप्त होता है।
यदि इन मुद्राओं का गहराई से अध्ययन करें तो अनेक रहस्यपट उद्घाटित होते हैं। प्रत्येक मुद्रा सप्रयोजन किसी भी विधान से जोड़ी गई है। उस विधान में त्रियोग रूप से जुड़ाव होने में मुद्राएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध होती हैं। इसी के साथ मुद्रा साधना शरीर के विभिन्न तंत्रों को सक्रिय एवं संतुलित करती है। मनोवैज्ञानिक स्तर पर भी मुद्रा साधना का आश्चर्यकारी प्रभाव देखा जाता है। इसका अनुभव हम अपने दैनन्दिन जीवन में भी करते हैं। इसी प्रभाव को ध्यान में रखकर जैनाचार्यों ने प्रत्येक क्रिया के साथ किसी न किसी मुद्रा का उल्लेख किया है जो उस कार्य की सिद्धि में सहायक बनती है।
__ मुद्रा विज्ञान का विस्तृत अध्ययन करते हुए जैन मुद्रा विज्ञान को चौथे भाग के तीसरे उपखण्ड अर्थात सत्रहवें खण्ड के रूप में विवेचित किया है। इस खण्ड में जैन परम्परा की मुद्राओं का समीक्षात्मक अध्ययन करते हुए उसे पाँच अध्यायों में प्रस्तुत किया है।
प्रथम अध्याय पूर्वोक्त खण्ड-16 के प्रथम अध्याय के समान ही है। इसमें मुद्रा प्रयोग के विभिन्न प्रभाव बतलाए गए हैं। द्वितीय अध्याय में 14वीं शती के महान आचार्य जिनप्रभसूरि द्वारा रचित विधिमार्गप्रपा की लगभग 75 मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप एवं उसके प्रभावों की चर्चा की गई है। जैन विधि-विधान सम्बन्धी ग्रन्थों में विधिमार्गप्रपा अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। वर्तमान प्रचलित अधिकांश विधि-विधान इसी के आधार पर करवाए जाते हैं। ___ इस ग्रन्थ में उल्लेखित मुद्राओं का प्रयोग विभिन्न कार्यों के लिए होता है। शरीर, स्थान, वातावरण, हृदय आदि की शुद्धि हेतु कुछ मुद्राओं का उल्लेख है तो कुछ देवी-देवताओं को आमन्त्रित करने हेतु उपयोग की जाती है। ऐसे ही अनेक प्रयोजन इन मुद्राओं के प्रयोग के पीछे समाहित है। इस अध्याय में उन मुद्राओं का सुविस्तृत स्वरूप, उसकी विधि, साधना से प्राप्त सपरिणाम एवं मुद्रा धारण करने के विशिष्ट प्रयोजनों का भी उल्लेख किया है।
इस अध्याय के माध्यम से विधि-विधानों के अभिप्राय का स्पष्टीकरण होगा तथा उन विधि-विधानों में आंतरिक जुड़ाव हो पाएगा। इसी के साथ उन विधानों की सम्यक सिद्धि भी हो पाएगी।