Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार
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कई लोग इन्हें अंधविश्वास मानते हैं तो कई अपनी-अपनी श्रद्धा का विषय । कुछ लोगों के अनुसार यह मंगल अनुष्ठान सहायक तत्त्वों के रूप में कार्य करते हैं तो कइयों के अनुसार यह पुरुषार्थ में कमी लाते हैं। प्रश्न होता है कि आखिर वस्तुस्थिति क्या है ?
कुछ लोगों का कहना है कि अच्छे कार्य करने हो तो कर लेने चाहिए उसमें मंगल आदि की क्या आवश्यकता ?
सुप्रसिद्ध लोकोक्ति है कि 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' अर्थात श्रेष्ठ कार्य में अनेक विघ्न आते हैं। परीक्षा हमेशा सत्यवादी एवं दृढ़ मनोबली लोगों की ही होती है। यह विघ्न उन्हें तपाकर सोने की भाँति खरा बना देते हैं।
सामान्यतया यह देखा जाता है कि शुभ कार्यों में हजारों बाधाएँ आती है । मानसिक तैयारी श्रेष्ठ कार्यों के लिए ही करनी पड़ती है। इन कार्यों में विघ्न की उपस्थिति मनोबल को ढीला कर देती है। वही मंगल अनुष्ठान एक विधेयात्मक ऊर्जा शक्ति का निर्माण करते हैं जो उन कार्यों की पूर्णता में सहायक बनता है। प्रतिष्ठा एक मौलिक अनुष्ठान- जैन विधि-विधानों के अन्तर्गत प्रतिष्ठा एक महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक विधान माना जाता है। यह विधान किसी व्यक्ति विशेष से संबद्ध न होकर सकल संघ से जुड़ा हुआ होता है । प्रतिष्ठा के सुपरिणाम सम्पूर्ण नगर एवं राष्ट्र पर देखे जाते हैं। यह पाषाण को पूज्य बनाने का एक अभूतपूर्व अनुष्ठान है। जिन प्रतिमा को जिन रूप में स्थापित करने की अद्भुत प्रक्रिया है। साधकीय जीवन की सम्पूर्ण साधना का परीक्षण है। श्रेष्ठ भावों की अभिवृद्धि का मंगल उपक्रम है। बहिरात्मा से अन्तरात्मा में प्रवेश करने का श्रेष्ठ आलम्बन है।
प्रतिष्ठा अनुष्ठान स्वानुभव की प्राप्ति एवं शुद्ध अवस्था की उपलब्धि के उद्देश्य से किया जाता है । इस अनुष्ठान का मुख्य प्रयोजन अनादिकाल से सुप्त भगवत स्वरूप को जागृत करना है ।
सामाजिक स्तर पर यदि चिंतन किया जाए तो प्रतिष्ठा अनुष्ठान में परमात्मा की स्थापना मात्र नहीं होती अपितु समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में जुड़ने का अवसर प्राप्त होता है। युवा वर्ग को धर्म कृत्यों की जानकारी एवं प्रेरणा मिलती है। गुरु भगवंतो के आगमन से सत्संस्कारों का सिंचन होता है तथा जिनमन्दिर उन्हें स्थायित्व प्रदान करता है।