Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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132...शोध प्रबन्ध सार
___ आदिकाल से ही मनुष्य साकार आलंबनों की पूजा करता रहा है। यद्यपि हर काल में इसका विरोध कभी लघु रूप में तो कभी बृहद स्तर पर होता रहा। कई बार विशाल मन्दिरों का विध्वंस भी किया गया तदुपरान्त धर्म स्थानों ने अपना वर्चस्व बनाए रखा। इन्हीं मन्दिर आदि आराधना स्थलों के रूप में धर्म का मूल दीर्घकाल तक टिका रहेगा।
मन्दिर सकारात्मक ऊर्जा के अनुभूत केन्द्र हैं। मन्दिरों की आकृति एवं मन्दिरों में होने वाले पूजा पाठ, मन्त्रोच्चार की ध्वनि आराधकों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है। मन्दिर का शांत वातावरण चित्त की कलुषित वृत्तियों को समाप्त करता है। देवालय के पवित्र वायुमण्डल के प्रभाव से सहज ही प्रभु भक्ति, परमात्म अनुराग एवं उनके गुणों को ग्रहण करने की भावना उत्पन्न होती है।
मन्दिर स्थापनाकर्ता के अतिरिक्त हजारों वर्षों तक असंख्य लोग भगवान की निरन्तर पूजा-अर्चना करते हुए अपना आत्म कल्याण करते हैं। उन लोगों की विशुद्धि आराधना में मन्दिर हेतुभूत बनते हैं।
शास्त्रों में उल्लेख आता है कि प्रथम बार सम्यक दर्शन जिनेश्वर परमात्मा के पादमूल में ही होता है। इस दृष्टि से माना जा सकता है कि परमात्मा के अभाव में जिनबिम्ब के समक्ष अर्थात जिनालय में ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। मन्दिर के माध्यम से देव-गुरु-धर्म तीनों का ही सान्निध्य प्राप्त होता है।
प्रतिष्ठा से पूर्व मांगलिक अनुष्ठान क्यों? प्रतिष्ठा विधान को सर्वत्र एक मांगलिक अनुष्ठान के रूप में माना जाता है। प्रतिष्ठा अनुष्ठान की निर्विघ्नता के लिए अनेक मांगलिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रतिष्ठा अनुष्ठान इतना महत्त्वपूर्ण क्यों?
आराध्य देवों की प्रतिमा के रूप में स्थापना करना एक शुभ क्रिया है। शुभ क्रियाओं को मांगलिक रूप से करना चाहिए। अरिहंत परमात्मा के वंदन एवं स्मरण को उत्कृष्ट मंगल माना गया है। प्रतिष्ठा अनुष्ठान में देव और गुरु दोनों ही तत्त्वों का समावेश हो जाता है।
लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि किसी भी सत्कार्य को करने से पूर्व शुभ वर्धक कुछ मंगलकारी विधान किए जाते हैं। शुभ शकुन आदि के दर्शन किए जाते हैं जिससे वह निर्विघ्नता पूर्वक सम्पन्न हो।