Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार
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प्रस्तुत कृति का उद्देश्य आज की व्यस्ततम जिंदगी में शान्ति एवं समाधि प्राप्ति के आवश्यक चरण के रूप में जिनपूजा से परिचित करवाना, निजत्व से जिनत्व की ओर अग्रेषित करना तथा जिनपूजा के वैविध्यपूर्ण गुणों एवं माहात्म्य को जग प्रसारित करते हुए भौतिकवादी वर्तमान पीढ़ी को भक्ति मार्ग पर आरूढ़ करना है।
खण्ड - 14
प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन आधुनिक संदर्भ में
जिनेश्वर प्ररूपित निवृत्ति मार्ग पर आरूढ़ होने के लिए सर्वप्रथम असद् प्रवृत्तियों को त्यागकर सद्प्रवृत्तियुत मार्ग पर गमन करना आवश्यक है। अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध के मार्ग पर क्रमशः प्रवर्त्तन किया जा सकता है। विधिविधानों का सर्जन मुख्य रूप से इसी कारण हुआ। मनुष्य का जीवन प्राय: सांसारिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने में ही पूर्ण हो जाता है। पूरा दिन 'भजकलदारम्' की रटना में ही बीत जाता है अतः बन्धन कारक सांसारिक कृत्यों को करते हुए अपने अर्थ एवं समय का सदुपयोग करने हेतु कुछ अध्यात्मपरक अनुष्ठान आवश्यक है। इन आवश्यकों के गुंफन में द्रव्य शुद्धि एवं भाव शुद्धि को विशेष प्रमुखता दी गई है। वस्तुतः निवृत्ति पाने के मूल उद्देश्य से ही शुभ प्रवृत्तियाँ की जाती है। प्रतिष्ठा जैन विधि-विधानों में उल्लिखित ऐसा ही दिव्य अनुष्ठान है। यद्यपि अधिकांश लोग यही मानते हैं कि यह एक आडम्बर युक्त बृहद् अनुष्ठान है, परन्तु यदि सूक्ष्मता पूर्वक इनके शास्त्रोक्त रहस्यों को जाना और समझा जाए तो यह आध्यात्मिक उन्नति का प्राथमिक चरण है।
प्रतिष्ठा का प्रचलित स्वरूप- आज के समय में प्रतिष्ठा का अर्थ जिनालय में जिनबिम्ब की स्थापना, आठ दिन का भव्यातिभव्य उत्सव, राजशाही भोजन व्यवस्था, बेहिसाब खर्च एवं बोलियों द्वारा देवद्रव्य की वृद्धि ऐसा किया जाता है। परन्तु यथार्थतः प्रतिष्ठा अनुष्ठान द्वारा बाह्योपचार से जिनालय में जिनबिम्ब की स्थापना होती है और भावतः मानव मात्र के हृदय में जिनवाणी और जिनाज्ञा की प्रतिष्ठा की जाती है।