Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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84... शोध प्रबन्ध सार
के लिए शुद्धि को आवश्यक माना है । प्रस्तुत अध्याय समस्त प्रकार की अशुचि को दूर करने की विधि का निरूपण करता है।
इस अध्याय में कल्पत्रेप का अर्थ, कल्पत्रेप किस दिन करें, कल्पत्रेप हेतु सामाचारीगत नियम, किन स्थितियों में कल्पत्रेप करें ? इत्यादि विषयों का सम्यक निरूपण किया गया है।
यहाँ परिशिष्ट के रूप में योगोद्वहन सम्बन्धी पारिभाषिक शब्दों के विशिष्टार्थ एवं रहस्यार्थ भी बताए हैं।
इस खण्ड लेखन का मुख्य उद्देश्य हमारी मौलिक एवं तात्त्विक विधियों को जीवंत रखना है। योगोद्वहन एक प्राचीन अध्ययन शैली होने के बाद भी वर्तमान संदर्भों में अत्यंत उपयोगी एवं सामाजिक उत्कर्ष के लिए एक सहायक तत्त्व है अत: इसका समुचित प्रचार-प्रसार एवं सम्पादन आवश्यक है। यह कृति अपने उद्देश्य में सफल होते हुए हमें अपने पारम्परिक ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रेरित करेगी तथा समाज में सम्यक ज्ञान एवं ज्ञान प्रदाता गुरुजनों के स्तर को सुधारेगी यही आशा है।
समाहारतः द्वितीय भाग के पाँचों खण्ड मुनि जीवन के वैशिष्ट्य एवं उनके साधना बहुल जीवन को प्रस्तुत करते हैं। श्रमण जीवन की आचार संहिता पर आधारित इस द्वितीय भाग का मुख्य ध्येय भौतिकतावादी एवं भोगवाद के बीच योगमय जीवन की सार्थकता एवं आवश्यकता को सिद्ध करना तथा श्रमणाचार के विभिन्न पहलुओं से आम जनता को अवगत करवाते हुए श्रमण साधना को उच्च शिखर पर पहुँचाना है।