Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...97 है। उत्तराध्ययनसूत्र में प्रायश्चित्त की मूल्यवत्ता को दिग्दर्शित करते हुए कहा गया है
पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म विसोहिं जणयइ...
आयारफलं च आराहेइ ।। प्रायश्चित्त करने से जीव पापकर्म की विशुद्धि करता है और निरतिचार युक्त हो जाता है। सम्यक प्रकार से प्रायश्चित्त करने वाला मार्ग (सम्यक्त्व) और मार्गफल (ज्ञान) को निर्मल करता है तथा आचार (चारित्र) और आचारफल (मोक्ष) की आराधना करता है। प्रायश्चित्त से रत्नत्रय की आराधना होती है और नियमानुसार मोक्ष की प्राप्ति होती है। ___ प्रमाद बहुल प्राणी भी प्रायश्चित्त से विशोधि को प्राप्त करते हैं। चारित्रधारी मनियों के चारित्र की रक्षा के लिए प्रायश्चित्त अंकुश के समान है।
निशीथ भाष्य में प्रायश्चित्त को औषधि की उपमा देते हुए तीर्थंकरों को धन्वंतरि वैद्य के तुल्य, अपराधी साधु को रोगी के समान, अपराध को रोग के समान बतलाया है। आत्म रोगों के निवारण के लिए प्रायश्चित्त एक उत्तम चिकित्सा पद्धति है।
प्रायश्चित्त की मूल्यवत्ता को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि जम्बुद्वीप में जितने पर्वत हैं वे सभी स्वर्ण के हो जाए, समस्त रेत रत्नमय बन जाए, उन सभी स्वर्ण और रत्नों का कोई सात क्षेत्र में दान करें तो भी जीव उतना शुद्ध और पाप मुक्त नहीं हो सकता जितना की भावपूर्वक आलोचना करके हो सकता है। ___ शास्त्रों में प्रायश्चित्त की मौलिकता को दर्शाते हुए यहाँ तक कहा है कि यदि कोई साधक आलोचना के भावों से अपने स्थान से प्रस्थान करें और प्रायश्चित्त लेने से पूर्व ही मार्ग में उसकी मृत्यु हो जाए तो भी वह आराधक कहा जाता है।
अपराध बहुल समाज में प्रायश्चित्त का औचित्य- आध्यात्मिक स्तर पर तो प्रायश्चित्त भाव विशोधि की महत्त्वपूर्ण क्रिया है परंतु यदि व्यवहार के धरातल पर विचार करें तो मानव समाज के लिए यह एक वरदान है। ___ यदि मनोवैज्ञानिक स्तर पर इसकी समीक्षा की जाए तो यह मन शुद्धि का श्रेष्ठ उपाय है। गलती करने के बाद कई बार व्यक्ति उसके पश्चात्ताप की अग्नि