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98...शोध प्रबन्ध सार में जलता रहता है। प्रायश्चित्त के माध्यम से उसका मन शांत और निराकुल हो जाता है। निराकुल मन के द्वारा वह आध्यात्मिक बौद्धिक, शारीरिक एवं भौतिक विकास कर सकता है।
प्रायश्चित्त अर्थात एक प्रकार का दंड। दंड की व्यवस्था अपराध नियंत्रण के लिए अत्यावश्यक है। स्वयं में तथा समाज में सुधार लाने का उत्तम प्रयोग है। शरीरस्थ ग्रन्थियाँ क्रोध, अपराध, ग्लानि आदि के भावों से असंतुलित हो जाती हैं। उनके स्राव में न्यूनाधिकता आ जाती है। आलोचना के माध्यम से उन्हें संतुलित किया जा सकता है।
प्रायश्चित्त समाज सुधार की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके द्वारा अपराधी की मानसिकता को ही बदलने का प्रयास किया जाता है। पापी के मन में पाप के प्रति घृणा लाने का प्रयास किया जाता है। कोई भी बंधन या सजा पाप को रोक सकती है परन्तु उसकी समाप्ति नहीं कर सकती जबकि प्रायश्चित्त गलत वृत्तियों की रोकथाम करता है। क्योंकि प्रायश्चित्त को व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से स्वीकार करता है।
वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास के लिए भी प्रायश्चित्त एक अपूर्व क्रिया है। प्रतिषिद्ध आचरण करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। इससे किसी प्रकार की गलत परम्परा का प्रारंभ नहीं होता। प्रायश्चित्त के माध्यम से स्वदोष ज्ञात होते हैं तथा स्वयं के दुर्गुणों की जानकारी से उनके निकासन एवं सफलता प्राप्ति में सहायता प्राप्त होती है। विविध प्रकारों के दंड का भय भी कई बार अपराधवृत्ति को रोकने में हेतुभूत बनता है। मानसिक उद्विग्नता शांत होती है। जीवनगत दुष्प्रवृत्तियों का निरोध होता है। पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था संतुलित रहती है।
प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त लाभ- शास्त्रकारों के मत में प्रायश्चित्त स्वीकार से प्रायश्चित्त कर्ता को अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। जैसे कि
• कृत दोषों का प्रायश्चित्त करने पर शुभ अध्यवसायों के कारण अन्य दोष भी नष्ट हो जाते हैं।
• गुरु के समक्ष पाप निवेदन करने पर अभिमान टूटता है। अहंकार ही संसार परिभ्रमण का मुख्य कारण है अत: प्रायश्चित्त के द्वारा संसार परिभ्रमण ही रूक जाता है।