Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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102...शोध प्रबन्ध सार
दूसरा अध्याय प्रायश्चित्त के प्रकार एवं उपभेदों से सम्बन्धित है। दोष विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का विधान प्राच्यकाल से प्रवर्त्तमान है। साधकों को प्रायश्चित्त हेतु अग्रसर करने एवं विविध प्रकार के दोषों का निवारण करने हेतु प्रायश्चित्त के भिन्न-भिन्न प्रकार बताए गए हैं।
इसमें प्रायश्चित्त की विभिन्न कोटियाँ बताते हुए किस दोष के लिए कौनसा प्रायश्चित्त दिया जाता है? प्रायश्चित्त कौन दे सकता है? कौन, किस प्रायश्चित्त का अधिकारी है? वर्तमान में कितने प्रायश्चित्त प्रवर्तित है? प्रायश्चित्त दान के विविध प्रतीकाक्षर, प्रायश्चित्त देने योग्य उपवास आदि तपों के मानदंड की तालिका आदि गूढार्थक विषयों को स्पष्ट किया है।
तृतीय अध्याय में प्रायश्चित्त लेने-देने के प्रभाव एवं उनकी उपयोगिता का वर्णन किया है। ___प्रायश्चित्त यद्यपि दोष स्वीकार मात्र की क्रिया है। परन्तु यह एक क्रिया अनेक लाभों की जनक है। जैनाचार्यों के अनुसार प्रायश्चित्त एक शुभ भाव धारा है। शुभ भावों से अशुभ कर्म का नाश होता है। पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। कर्मों के अनुबंध का विच्छेद होता है और जीव मोक्ष मार्ग पर आरूढ़ होता है।
साधक वर्ग को आलोचना एवं प्रायश्चित्त की महत्ता बताने के लिए इस अध्याय में प्रायश्चित्त के शास्त्रोक्त लाभ, प्रायश्चित्त की आवश्यकता, प्रायश्चित्त विधियों के गवेषणात्मक रहस्य, गुरुमुख से आलोचना करने के कारण, आलोचना एकांत में क्यों? प्रायश्चित्त दान सम्बन्धी विविध शास्त्रीय नियम आदि पर चर्चा की गई है। जिससे आराधक वर्ग प्रायश्चित्त विधि के विभिन्न रहस्यों को जान सके।
इस खण्ड का चतुर्थ अध्याय आलोचना विधि के मौलिक बिन्दुओं को उजागर करता है। आलोचना जैन साहित्य का एक पारिभाषिक शब्द है। गृहस्थ एवं मुनि जीवन दोनों में ही इसका अनन्य स्थान है। इसे कुसंस्कारों के निर्मूलन का श्रेष्ठ उपाय माना है। सम्यक आलोचना के द्वारा अनेकशः पाप अपना दष्फल दिए बिना ही निर्जरित हो जाते हैं। एक पाप के प्रति रहा जुगुप्सा भाव अनेक पाप कर्मों की श्रृंखला को तोड़ देता है।
उपरोक्त अध्याय में आलोचना के इसी महत्त्व को दर्शाते हुए आलोचना के