Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार इस अध्याय में वर्णित पहलुओं द्वारा उस यांत्रिक क्रिया में प्राण संचार हो
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पाएगा।
इस अध्याय में प्रतिक्रमण सम्बन्धी नियमोपनियमों का दिग्दर्शन करवाते हुए प्रतिक्रमण का समय, वन्दन के लिए आत्यावश्यक सतरह प्रमार्जना स्थान आदि अपेक्षित विधियों का निरूपण किया गया है। इसमें प्रतिक्रमण शुद्धि की दृष्टि से छींक दोष, बिल्ली दोष, सचित्त- अचित्त रज दोष आदि की निवारण विधियाँ बताई गई है।
सप्तम अध्याय उपसंहार रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इस खण्ड लेखन का मुख्य उद्देश्य प्रतिक्रमण रूप आवश्यक क्रिया की प्राचीनता एवं मूल्यवत्ता से परिचित करवाते हुए उसे तदरूप स्थान दिलाना है। प्रतिक्रमण के द्वारा मात्र स्वकृत दोषों की आलोचना ही नहीं अपितु जीव मात्र से मैत्री पूर्ण सम्बन्ध की स्थापना होती है। यह कृति कर्मों के आक्रमण एवं मर्यादाओं के अतिक्रमण को रोककर दोषमुक्त जीवन जीने में सहायक बनेगी यही आकांक्षा है।
खण्ड - 13
पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता मनोविज्ञान एवं अध्यात्म के सन्दर्भ में
पूजा विधि-विधानों का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। पूजा-उपासना, भक्ति आदि आर्य संस्कृति के मौलिक तत्त्व हैं। इन्हीं तत्त्वों के आधार पर भारतीय संस्कृति आज चिरंजीवी है। मूर्ति और मन्दिर आर्य संस्कृति की धरोहर हैं। आर्य देश में पनप रहा कोई भी धर्म-संप्रदाय हो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में वह श्रेष्ठ आलम्बन को आध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति हेतु आवश्यक मानता है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहने और जीने के लिए उसे विविध आलंबनों की आवश्यकता रहती है। जन्म और पालन-पोषण के लिए माता-पिता, ज्ञानार्जन के लिए अध्यापक, रोग विमुक्ति के लिए डॉक्टर, रहने के लिए घर, व्यापार के लिए ऑफिस आदि। ऐसे ही साधना - उपासना के क्षेत्र में किसी न किसी आलंबन का सहारा लेकर ही विकास का मार्ग प्रशस्त किया