Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ...121 मानव समाज का ऊर्जा केन्द्र जिनालय- मन्दिर कहने को तो परमात्मा का निवास स्थान है। परंतु यदि सूक्ष्मता पूर्वक विचार करें तो मन्दिर मानव समाज के लिए वरदान है। मानव को महामानव बनाने का प्रमुख सोपान है। कल्याण भाव प्रदायक यह मन्दिर आत्म शान्ति का दिव्य निकेतन है। दुर्भावना रूपी कीचड़ को दूर करने के लिए अस्खलित भावों की प्रवाहमान सरिता के समान है। आत्मोन्नति के मार्ग पर गतिमान होने के लिए मंदिर निष्कंटक राजमार्ग के समान है। अपनी वैचारिक सत्-असत् प्रवृत्तियों के दर्शन के लिए यह एक दिव्य दर्पण के समान है। आत्मा की सुषुप्त शक्तियों को जगाने के लिए घंटाघर के समान है। आज की विषम परिस्थितियों में जिनमन्दिर एक विद्युत दीप के समान है जो अपने ज्ञान प्रकाश द्वारा अभिष्ट मार्ग पर ले जाता है। मार्ग पतित मनुष्यों के लिए जिन मंदिर एक सच्चे सलाहकार के समान है जो सशिक्षा प्रदान करता है।
नमुत्थुणं सूत्र के अनुसार तीर्थंकर परमात्मा मार्ग दाता है अत: जिनमन्दिर हर मनुष्य को सच्चा मार्ग बताने वाले मार्गदर्शक और जीवन साधना का सदुपदेश देने वाले सच्चे उपदेशक हैं। जिनमन्दिर एक मजबूत और सुरक्षित नाव है जिसके द्वारा संसार समुद्र को पार किया जा सकता है।
जिनालय में प्रतिष्ठित जिन प्रतिमा मानव जगत के लिए मुख्य ऊर्जा केन्द्र है।
जिनपूजा आगम युग से अब तक- जिनपूजा एक आगमिक विधान है। प्राचीन काल से किसी न किसी रूप में आराध्य की पूजा उपासना होती रही है। आगम युग से अब तक पूजा पद्धति में अनेक प्रकार के परिवर्तन देखे जाते हैं। आगम युग में जहाँ सर्वोपचारी पूजा का विधान था वहाँ आज मात्र अष्टप्रकारी पूजा तक सीमित रह गया है। वर्तमान श्रावक वर्ग इसी से परिचित है और यही पूजन विधान सर्वत्र प्रचलित है।
इसके माध्यम से व्यक्ति का समय, द्रव्य एवं जीवन तीनों ही सार्थक होते हैं। अष्टप्रकारी पूजा के रूप में आराधक मात्र परमात्मा को द्रव्य अर्पित ही नहीं करता अपितु उस द्रव्य अर्पण के माध्यम से वह परमात्मा के साथ अपना एक सम्बन्ध स्थापित करता है।