Book Title: Jain Vidhi Vidhano Ka Tulnatmak evam Samikshatmak Adhyayan Shodh Prabandh Ssar
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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शोध प्रबन्ध सार ... 111
विविध पक्षों की चर्चा की गई है।
करते
इस कृति का पंचम अध्याय प्रतिक्रमण आवश्यक की सामान्य विवेचना हुए उसके अर्थ गांभीर्य को प्रस्तुत करता है । षडावश्यक में प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक रूप है परंतु वर्तमान में सम्पूर्ण षडावश्यक की क्रिया प्रतिक्रमण नाम से ही जानी जाती है। वस्तुत: यह आवश्यक क्रिया का एक स्वतंत्र अंग तथा आत्म संशुद्धि एवं दोष परिष्कार का जीवन्त साधन है । छः आवश्यकों में प्रतिक्रमण ऐसा आवश्यक है जिसके सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया जा सकता है अतः खण्ड-12 में इसका सविस्तार वर्णन किया गया है।
षष्टम अध्याय में पाँचवें कायोत्सर्ग आवश्यक की चर्चा करते हुए उसका मनोवैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत किया है।
कायोत्सर्ग पाप विमुक्ति एवं देह निर्ममत्व की अचूक साधना है। इसी आवश्यक के माध्यम से हम अपने अन्तर्मन या आत्म स्वभाव में स्थित हो सकते हैं। कायोत्सर्ग बहिर्मुखी प्रवृत्तियों से अन्तर्मुखी होने का सशक्त आधार है। इसके द्वारा शारीरिक ममत्व का विसर्जन कर देहातीत अवस्था का अनुभव किया जाता है।
वर्णित अध्याय में कायोत्सर्ग के विभिन्न घटकों की चर्चा करते हुए कायोत्सर्ग का अर्थ विश्लेषण, कायोत्सर्ग के प्रकार, कायोत्सर्ग संबंधी दोष एवं आगार, कायोत्सर्ग योग्य दिशा, क्षेत्र एवं मुद्राएँ तथा अन्य विधि निर्देश देते हुए कायोत्सर्ग की तुलना प्रत्याहार, हठयोग, श्वासोच्छवास काय गुप्ति, ध्यान, विपश्यना, प्रेक्षाध्यान आदि से की गई है ।
इस खण्ड के अन्तिम अध्याय में प्रत्याख्यान के आवश्यक पहलुओं को प्रस्तुत करते हुए उन पर शास्त्रीय अनुचिन्तन किया गया है। प्रत्याख्यान षडावश्यक का अंतिम छट्टा अंग है। इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कर्तव्य है। इस दुर्लभ मानव तन को सार्थक करने हेतु जीवन में त्याग होना अत्यंत आवश्यक है। प्रत्याख्यान के माध्यम से जीवन की इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को सीमित किया जा सकता है अतः मोक्षाभिलाषी श्रावकों के लिए यह दैनिक आचार है।
सप्तम अध्याय में प्रत्याख्यान विषयक वर्णन करते हुए प्रत्याख्यान का पारिभाषिक स्वरूप, प्रत्याख्यान के प्रकार, प्रत्याख्यान विशोधि एवं अविशोधि